Monday, December 27, 2010



वो अमराईयां वो सरसों के खेत ,


वो नदिया किनारे चांदी सी रेत,


वो भौरों का गुंजन वो कोयल का गाना ,


वो द्वारे पे आ के गौ का रम्भाना ,


वो गाँव का पनघट और पीपल की छाँव


बहुत याद आता है अपना वो गाँव। ।

मत पूछो यारो हमसे क्या चीज जवानी है ।

छेड़ो तो नगमा है वर्ना खामोश कहानी है।

उम्र का ऐसा दौर है ये जब दिल बेकाबू होता है,

रोक सका न इसको कोई ये वो दरिया तूफानी है ।

इस तरह अपनी कहानी किसी को बता नहीं ।

खता करके न कहना की हमने खता नहीं ।

पूछे जब कोई क्या रिश्ता है 'अजय' से,

नज़रें झुका के कहना हमको पता नहीं।

जितना प्यार मेरे जीवन का वह सब तुमको दे डाला , जितना खार तेरे जीवन का वह सब मैंने पी डाला

अब रही वेदना सिसक -सिसक तुम उस से सेज सजा लेना , शेष बचे जो खारे आंसू उनसे तेरा तन धो डाला !

Tuesday, November 16, 2010


गया वसंत गयी हरियाली छोड़ गया उपवन को माली
खली वृक्ष खड़े हैं यहाँ अब अपने हाथ पसारे...
फिर मचल उठे दो धारे...
इन्द्र धनुष की छवि से सुंदर , आँखे जैसे नील समुंदर
मन मंदिर में बसी मूर्ति को , अर्पित गीत हमारे ....
फिर मचल उठे दो धारे..

Tuesday, November 9, 2010

ओबामा की यात्रा के मायने

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहली भारत यात्रा को लेकर कूटनीतिक तथा राजनयिक स्तर पर विश्लेषण किये जा रहे हैं और यह पता लगाया जा रहा है कि उनकी यात्रा कितनी सफल रही . दिग्गज अमेरिकी विशेषज्ञों के मुताबिक यह यात्रा भारत-अमेरिकी रिश्तों को एक नए मुकाम पर लेकर जाएगी।

संसद में दिया गया उनका [ओबामा] भाषण वास्तविकता और आदर्शों का बेहतरीन मिश्रण था और उन्होंने सूझबूझ के साथ इस बात को साबित किया कि वह व्यक्तिगत रूप से भारत पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं और अमेरिका के लिए भारत-अमेरिकी रिश्ते बेहद महत्वपूर्ण हैं।

शंकाएं गलत साबित हुईं। इतिहासकार इस यात्रा को परिपक्वता और एकजुटता के लिए एक मील के पत्थर के रूप में देखेंगे जिसे राष्ट्रपति ओबामा ने 21वीं सदी की निर्णायक भागीदारी बताया हैं।

एक सरसरी नज़र से देखने पर कहा जा सकता है कि भारत-अमेरिकी रिश्तों को और मजबूत करने की दिशा में ओबामा की यात्रा सफल रही और यह दोनों देशों के संबंधों को नए मुकाम पर लेकर जाएगी।

इस यात्रा ने उनके प्रशासन का भारत के साथ जुडाव के महत्व को स्पष्ट किया जिसमें आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को रेखांकित किया गया। भारत की वैश्विक भूमिका को और बढ़ाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं, जिसमें भारतीय संगठनों पर निर्यात नियंत्रणों में ढील और अप्रसार से जुड़े संगठनों जैसे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह [एनएसजी] में भारत की सदस्यता का समर्थन शामिल है।सबसे महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे को समर्थन। वैसे इस समर्थन को फ़िलहाल प्रतीकात्मक' कहा जा सकता है। क्योंकि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के बारे में समर्थन वास्तविकता से बहुत दूर है। दक्षिण एशियाई मामलों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ स्टीफेन पी.कोहेन का कहना है कि भारत की स्थायी सदस्यता की बात 'प्रतीकात्मक' अधिक है। यह संकेत ही भारतीय मीडिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।उनका मानना है कि संयुक्त राष्ट्र का सुधार एक बहुत बड़ा काम है। 'वूडरो विल्सन सेंटर' के रॉबर्ट हेथवे का कहना है कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का समर्थन करना महत्वपूर्ण तो है, परंतु यह केवल संकेतात्मक है। दूसरी ओर अमेरिकी सांसदों ने भारत को इस संबंध में समर्थन का स्वागत किया है। उनका मानना है कि इस विश्व संस्था में 21वीं सदी की झलक मिलनी चाहिए। भारत विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ओबामा का समर्थन अमेरिका के एक निकट सहयोगी को मजबूती प्रदान करने का प्रयास है। भारत विश्व में दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला राष्ट्र है और यह वैश्विक सुरक्षा की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण देश है। इसे सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देना तर्कपूर्ण है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा अपनी पहली भारत यात्रा में उसे अमेरिका का अपरिहार्य सहयोगी करार दिए जाने के बाद अब उनके पूर्ववर्ती जार्ज डब्ल्यू बुश ने भी स्वीकार किया है कि भारत में अमेरिका के करीबी सहयोगियों में शामिल होने का माद्दा है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश ने अपनी पुस्तक 'डिसीजन प्वाइंट्स' में कहा कि मेरा मानना है कि एक अरब की आबादी और शिक्षित मध्यम वर्ग वाले भारत में अमेरिका का करीबी सहयोगी बनने की संभावना है। भारत- अमेरिका संबंध को नई ऊंचाइयों तक ले जाने वाले और भारत के साथ नागरिक परमाणु समझौते में अहम भूमिका निभाने वाले बुश ने कहा कि यह समझौता विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच रिश्ते बेहतर करने के प्रयासों की परिणति है। परमाणु समझौता एक ऐतिहासिक कदम था क्योंकि इसने वैश्विक स्तर पर भारत की नई भूमिका के संकेत दिए। साथ ही बुश का यह भी मानना है कि इस समझौते से जाहिर तौर पर पाकिस्तान में चिंताएं बढ़ीं।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा से उत्साहित भारत के लिए यह समय अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर गंभीरता से विचार करने का है। इस तरह का समझौता आसियान तथा दक्षिण कोरिया के साथ किया जा चुका है।
व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते के लिए बातचीत पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जिसमें व्यापार, निवेश तथा सेवाएं शामिल हों। हमें इसका उपयोग नीवं के रूप में करना चाहिए। लेकिन, इस तरह के फैसलों के लिए व्यापार बातचीत की जरूरत होगी और ऐसे कदम सोच समझकर उठाए जाने चाहिए। निसंदेह यह सब इस कमरे में आज ही होने से रहा। भारत अमेरिका का व्यापार 2009-10 में 36।6 अरब डालर रहा था। जहा तक ओबामा की कूटनीति का प्रश्न है ,वे सफल रहे हैं। तीव्र आर्थिक मंदी से जूझ रहे अपने देश को रास्ते पे लाना उनकी प्राथमिकता है। इसलिए जब ओबामा अपने देशवासियों के लिए ५० हज़ार नौकरियां जुटाने का दावा करते हैं तब वे निश्चित ही किसी कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नज़र आते हैं।

ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर अपने समर्थन को अंतिम समय तक रहस्य बनाए रखा ८ अक्टूबर को भारतीय संसद को संबोधित करने से खड़े होने से कुछ मिनट पहले तक उन्होंने ने इस मामले में भारत को समर्थन देने की अपनी घोषणा के बारे में गोपनीयता बरकरार रखी थी। ओबामा ने अपने इस कदम को अंतिम समय तक अपने दिल में छिपाए रखा। संसद में उनका संबोधन शुरू होने से कुछ मिनट पहले तक किसी को यह पता नहीं था कि ओबामा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के मामले में अपने समर्थन की घोषणा करने वाले हैं।
लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन को जवाब देने के लिए यह घोषणा की है। इससे पता चलता है कि अमेरिका, भारत के साथ अपने आर्थिक और रक्षा संबंधों को और मजबूती देना चाहता है। हालांकि, यह अभी तक तय नहीं है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता कब तक मिलेगी। न ही पेशकश में यह गारंटी दी गई है कि भारत को सदस्यता मिलेगी ही।
ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए भारत को समर्थन चीन को जवाब देने के लिए किया है। ओबामा का यह कदम चीन को जवाब है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए भारत को समर्थन से राष्ट्रपति ने यह संकेत दे दिया है कि अमेरिका दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच भागीदारी को और ऊंचाई पर ले जाना चाहता है। साथ ही वह भारत के साथ व्यावसायिक रिश्तों को मजबूती देना चाहता है और चीन को जवाब देना चाहता है।
ज़ाहिर है की इस कदम से चीन में नई चिंताएं पैदा हो सकती हैं। यह अमेरिका के उन प्रयासों का भी संकेत है कि चीन की बढ़ती ताकत के बीच अमेरिका एशियाई देशों से अपने गठजोड़ को और मजबूत करना चाहता है।
वैसे भारत को 55 साल पहले 1955 में भी स्थाई सदस्यता की पेशकश की गई थी। उस समय अमेरिका और सोवियत संघ ने भारत को यह पेशकश की थी, पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस पेशकश को ठुकरा दिया था। नेहरू ने कहा था कि भारत के बजाय यह सीट चीन को दे दी जाए।
ओबामा की यह प्रतिबद्धता भारत के नए अंतरराष्ट्रीय दर्जे की दिशा में सिर्फ एक कदम है।

Monday, November 1, 2010

अब किस पे करें भरोसा

इसी रविवार को मुंबई स्थित एक चेनल के ऑफिस में गया। एक मित्र का आग्रह था कि ब्यूरो चीफ कि जगह खाली है आ जाओ । अपन भी इलेक्ट्रोनिक मिडिया का कीड़ा शांत करने के इरादे से उधर चले गए। मगर उस दफ्तर में पत्रकारिता का जो वीभत्स रूप मुझे दिखाई दिया वह मेरे लिए एक भयावह अनुभव था । चैनल के एक अफसर को खबर से ज्यादा इस बात में रूचि थी कि कौन सा बिल्डर कहा क्या घपला कर रहा है । साहब ने बाकायदा एक फाइल बना राखी है जिसमे शहर भर में चलनेवाले तमाम निर्माण कार्यों विशेषकर भवन निर्माण कि अच्छी खासी जानकारी जुटा कर रखी हुयी थी। इशारा साफ़ था कि यहाँ खबर का मतलब तोडपानी है । पत्रकारिता से भाई लोगों को कोई लेना देना नहीं था न है। शायद यही कारण रहा होगा कि मेरे एक मित्र वहां एक महिना भी पूरा किये बगैर ही छोड़ दिया है। सवाल यह है कि पत्रकारिता का यह कौन सा तेवर है जिसमे पत्रकार को एक हफ्ताखोर बना कर बाज़ार में उतारा जा रहा है । मेरे पूर्व नियोक्ता भी पत्रकारों को दलाई के धंधे में उतर दिया है। हाँ जब भी आप उनसे मिलोगे तो पत्रकारिता के आदर्शवाद पर पूरा भाषण झड देंगे। लगेगा कि इनसे बड़ा महान पत्रकार कोई नहीं है। लेकिन कथनी और करनी में एकदम विरोधाभास है। यदि आप पत्रकार हैं और स्वाभिमान जैसे रोग से पीड़ित है तो कृपया अपने आदर्शवाद को घर ही छोड़ दें और हाथ में कटोरा ले भीख अर्थात विज्ञापन मांगने का अभ्यास करें वर्ना आज कि पत्रकारिता में आप अप्रासंगिक हो जायेंगे ठीक मेरी तरह। दलाली सीख लो, दुनियाभर के छल कपट को अपना स्वाभाव बना लो, दूसरे की जेब काटने का फन सीख लो । बहरहाल अपन निराश नहीं हैं .निश्चित ही यह स्थिति ज्यादा दिन तक चलने वाली नहीं है। लोग ऐसे पत्रकारों को यथोच्य ढंग से निपटेंगे । लेकिन इस बीमारी का हल अपने पत्रकार समाज को ही खोजना होगा। हमें अपने भीतर झांकना होगा की इस स्थिति के लिए कहीं हम खुद ही तो जिम्मेदार नहीं हैं? आज पत्रकारों में भी दिखावे की जो प्रवृत्ति बढ़ी है वही आज की पत्रकारिता को भ्रष्ट कर रही है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहेंगे ? जिस दिन इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर ढूँढने का प्रयास होगा , पत्रकारिता सुधर जाएगी।

Thursday, October 28, 2010

किसका डर है सरकार को

बधाई हो !सरकार ने कश्मीर के कट्टरपंथी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधति राय के कथित देश विरोधी भाषणों को लेकर उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कराने का किया है ।
इन दोनों लोगों ने पिछले हफ्ते यहां एक सेमिनार में कथित तौर पर देश विरोधी भाषण दिया था।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बताया है कि विभिन्न मुद्दों पर विचार करने के बाद यह फैसला किया गया। यह निर्णय लिया गया कि इस तरह के किसी कदम उन्हें अनावश्यक प्रचार मिलेगा और घाटी में अलगाववादियों को एक मौका मिलेगा।
उन्होंने बताया कि हमने उन्हें नजरअंदाज करने का फैसला किया है।
गिलानी और अन्य लोगों ने 21 अक्तूबर को यह बयान दिए थे, जिसे अलगाववाद को तूल देने की कोशिश के रूप में देखा गया। गृहमंत्रालय ने इस मुद्दे पर कानूनी राय मांगी थी, जिसमें यह सुझाव दिया गया कि आईपीसी की धारा 124 [ए] [देशद्रोह] के तहत एक मामला दर्ज किया जा सकता है।
मंत्रालय ने राजनीतिक राय लेने के बाद गिलानी और राय के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कराने का फैसला किया। 'आजादी- एक मात्र रास्ता' विषय पर आयोजित सम्मेलन में गिलानी, लेखिका अरूंधति और माओवाद समर्थक नेता वार वरा राव शामिल हुए थे। श्रोता गिलानी के भाषण पर भड़क गए और एक व्यक्ति ने उनपर जूता फेंक दिया। सवाल यहं है किसे किसे नज़रंदाज़ करोगे? यह देश है या कोई धरमशाला जहाँ जब चाहे कोई आये और कुछ भी बक कर चला जाये! सरकार कह रही है की इससे उनको अनावश्यक प्रचार मिलेगा .बड़ा ही मासूम सा तर्क है यह। कितना अजीब है कि जिस प्रचार न देने से सरकार कतरा रही है उससे ज्यादा प्रचार तो भाई और बाई को वैसे ही मिल गया है। फिर अरुंधती और गिलानी के साथ इतनी नरमी का अर्थ ? तब तो हमें पकिस्तान में बैठे देश के दुश्मनों की भी बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए। ऐसा लगता है कि सरकार को किसी अदृश्यशक्ति का भय है। यह अदृश्य शक्ति कौन है। देश के तथाकथित प्रगतिवादी जिन्हें हर उस काम में सुख मिलता है जिसमें देश का नुकसान होता हो। सय्यद अली शाह कि साड़ी उम्र भारत विरोध में बीती है। इसी बिना पर यह शख्श अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सभी सुविधाएँ भी भोग रहा है। समझ में नहीं आता आस्तीन में ऐसे दोस्त किस हेतु पाले जा रहे हैं?

Wednesday, October 27, 2010

इस वार्ता का मतलब ?

जम्मू-कश्मीर पर वार्ता प्रक्रिया को बढ़ाने के लिए छोटे-छोटे कदमों की वकालत करते हुए केंद्रीय वार्ताकारों ने कहा है कि राज्य में सभी विचारों के लोगों से बातचीत करने के अतिरिक्त उनके पास देश में सभी पक्षों को विश्वास में लेने की एक बड़ी जिम्मेदारी है।
यदि देश के राजनीतिक मत का नेतृत्व करने वाली संसद को विश्वास में नहीं लिया जाता तो प्रयास व्यर्थ हो जाएगा। यह एक बड़ा दायित्व है, लेकिन इसे किया जाना है। समग्र और स्थाई समाधान ढूंढ़ने के प्रयास के तहत कश्मीर में समाज के विभिन्न तबकों के साथ बातचीत में वार्ताकार दल ने कश्मीर पर राजनीतिक मतों को सुना और लोगों के सामने रोजाना आने वाली स्वतंत्र होकर न घूम पाने या बच्चों के लिए दूध न मिल पाने जैसी समस्याओं के बारे में भी जाना। अपना मानना है कि टीम के राज्य के पहले दौरे के बाद किसी को भी बड़े कदमों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए । यह समूह राज्य में स्थिति में सुधार के लिए केंद्र को सिफारिश करेगा। राज्य में हालत सुधारने के लिए तत्काल राजनीतिक बंदियों, पथराव करने वालों की रिहाई और क‌र्फ्यू हटाना शीर्ष प्राथमिकताओं में है। ध्यान रहे कि संसद द्वारा पारित एक प्रस्ताव [जम्मू कश्मीर के पाकिस्तानी कब्जे वाले हिस्से को वापस लेने के लिए] पाकिस्तान को एक पार्टी बना देता है। आदर्श रूप से कश्मीर मुद्दे का समाधान पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र सहित राज्य के सभी भागों के लोगों का स्वीकार्य होना चाहिए।
वहीं, कश्मीर के लिए केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकार जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 2000 में पारित स्वायत्तता संकल्प के मुद्दे पर भाजपा नेतृत्व किस तरह की धारणा रखता है यह जानना भी जरुरी है । क्योंकि केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने उसे खारिज कर दिया था। इस संकल्प के ख़ारिज होने की वजह भी सार्वजनिक होनी चाहिए। उस समय विधानसभा में नेशनल कांफ्रेंस को करीब दो-तिहाई बहुमत हासिल था और सदन ने जुलाई 2000 में वह संकल्प पारित किया था, लेकिन केंद्र सरकार ने उसे खारिज कर दिया था, जबकि नेशनल कांफ्रेंस उस समय राजग सरकार में शामिल थी।
फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 2006 में गठित पांच कार्यकारी समूह की सिफारिशों की कार्रवाई रिपोर्ट [एटीआर] का क्या हुआ देश यह भी जानना चाहेगा .यहाँ ये सब सन्दर्भ गिनाने का खास मकसद है। वह यह कि क्या कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकारों को उपरोक्त सभी बातों से परिचित करा दिया गया था? यदि हाँ तो वे जानकारियां क्या है और यदि नहीं तो क्यों? सरसरी दृष्टी से देखने पर लगता है कि कश्मीर पर बातचीत के लिए आधी अधूरी जानकारी के साथ वार्ताकार वहां भेजे गए। वे किससे बात करेंगे और बात चीत का मसौदा कैसे व कौन तय करेगा तथा उस की वैधता व विश्वसनीयता , स्वीकार्यता , सन्दर्भ , संकल्पना, सार्थकता एवं सर्व ग्राह्यता के मान दंड क्या हैं /होंगे कुछ ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर दिया जाना चाहिए।

Saturday, October 23, 2010

इतनी छूट क्यों?


आखिर भाई लोग चाहते क्या हैं ? साथ ही साथ हमारे देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार की मंशा क्या है? जम्मू कश्मीर के अलगाव वादी नेता और डेढ़ सयाने बुद्धिजीवी दिल्ली में मजमा लगाकर देश और संविधान के खिलाफ जहर उगलते रहें और देश के कर्णधार उनके भाषणों की सीडी देखने के बाद कुछ करने या न करने की बात करें तो इस विडम्बना पर रोने के सिवा हम और आप क्या कर सकते है? लेकिन इस रोने धोने से कुछ होने वाला नहीं है.क्योंकि दिल्ली की गद्दी पर बैठे सत्ताधीश देश और संविधान को लेकर इतने गंभीर है ही नहीं। वर्ना जब अलगाववादी देश की राजधानी में राष्ट्रद्रोह को बढ़ावा देने का काम कर रहे थे, तब केंद्र सरकार कार्रवाई करने के बजाय हाथ पर मूकदर्शक बनी क्यों बैठी रही। ध्यान रहे की संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को देश के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
अलगाववादियों ने सरकार की नाक के ठीक नीचे राष्ट्रद्रोह को बढ़ावा देने के लिए एक सम्मेलन आयोजित किया। इसमें कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के साथ नक्सलियों व खालिस्तान समर्थकों ने भी देश की एकता व अखंडता के खिलाफ जमकर जहर उगला। इस घटना से पूरा देश स्तब्ध है लेकिन यह बेहद आश्चर्यजनक है कि सब कुछ जानने-समझने के बावजूद केंद्र सरकार चुपचाप देखती रही। मूकदर्शक बनी रही । यह देश को मंजूर नहीं है और होना भी नहीं चाहिए।
हुर्रियत नेता गिलानी की कश्मीरियत की परिभाषा कश्मीर के लोगों व वहां की संस्कृति से एकदम अलग है। गिलानी लोगों को सिर्फ नफरत सिखा रहे हैं। इस समस्या का तानाबाना भले ही सरहद पार बुना जाता हो, लेकिन दिल्ली की सरकार भी कम नहीं है। यहां पर कश्मीर समस्या एक उद्योग बन गई है। राजनीतिक वर्ग ने बेहद निकम्मेपन का सबूत दिया है। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व उनके पिता केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला को किसने आगे बढ़ाया है? आखिरकार राजनीति में चंद खानदान ही नजर क्यों आते हैं। देश के वफादार की जगह निजी वफादार से राजनीति चले, इस सोच से यह सब हो रहा है।
अब जरा



हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के बयां को भी देखें। गिलानी ने कश्मीर पर नियुक्त किए गए केंद्र सरकार के वार्ताकारों को फिजूल बताते हुए इनका बहिष्कार करने की घोषणा कर दी उनहोंने केंद्र सरकार के इस कदम को फरेबकारी बताते हुए सिर्फ समय टालने वाला कवायद बताया । उनकी आवाज में आवाज मिलाते हुए लेखिका अरुंधति राय भी कह गयी कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग रहा ही नहीं। उन्होंने भारत को उपनिवेशवादी भी बताया।
गिलानी ने राजधानी में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि केंद्र सरकार ने जो वार्ताकार नियुक्त किए हैं, उनका राज्य के सभी गुटों को बहिष्कार करना चाहिए। ये वार्ताकार वहां जा कर क्या करेंगे। यह तो सभी को मालूम है कि राज्य की जनता क्या चाहती है। घाटी ही नहीं, बल्कि जम्मू और लद्दाख के लोगों को हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। गिलानी के मुताबिक सिर्फ मुसलमान ही नहीं, राज्य के हिंदू और सिखों को भी आत्म निर्णय का हक चाहिए। इसका पता करने के लिए किसी वार्ताकार की जरूरत नहीं है। यह सिर्फ समय बिताने की फरेबकारी कवायद है।
राजनीतिक कैदियों की आजादी के लिए समिति' की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम का संचालन संसद पर हमले के आरोप से बरी हो चुके एसएआर. गिलानी ने किया। इसी मौके पर लेखिका अरुंधति राय ने भी अलगाववादियों के पक्ष में जम कर तर्क दिए। इन अलगाववादी आंदोलनों को उन्होंने जन-आंदोलन बताया। साथ ही कहा कि कश्मीर को बार-बार भारत का अभिन्न अंग बताया जाता है, जबकि यह कभी अभिन्न अंग रहा ही नहीं। उनहोंने कहा कि चाहे कश्मीर के आंदोलनकारी हों या नगालैंड के या फिर नक्सली, ये जन आंदोलन हैं। इसलिए इनकी आवाज को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचना चाहिए। वैसे तो विश्व हिंदू परिषद का आंदोलन भी जन आंदोलन है, लेकिन इसमें फर्क यह है कि यह 'सबके लिए न्याय' के सिद्धांत पर आधारित नहीं है, जबकि अलगाववादी बताए जाने वाले ये आंदोलन इस भावना पर आधारित हैं। अब इन लेखिका से पूछा जाना चाहिए कि सीमा पर कि मदद से चलाये जा रहे देश विरोधी अभियान को जन आन्दोलन कैसे कहा जा सकता है? मैडम अयून्धाती राय का सारा चितन अभिजात्य सोच पर आधारित है। वे उस वर्ग की लेखिका है जो इस भारत गणराज्य की गरीबी पर पंचतारा होटलों में बैठकर वाग्विलास करते है। देश की जमीनी सच्चाई का उनको जरा भी अहसास नहीं है। गिलानी किस मुह से कश्मीर के हिन्दुओं की बात कर सकते है । खासकर तब जब कि लाखो कश्मीरी पंडित अब भी दिल्ली और आस पास खानाबदोशों कि जिंदगी जी रहे हों। अरुंधती राय ने भोग ही क्या है? नक्सली हिंसा में जो निरपराध मारे गए उनका दोष क्या था? यह किस तरह का जन आन्दोलन है जिसमे जन से ज्यादा गन ( बन्दूक) कि आवाज़ सुने पड़ती है। मैडम राय खुलेआम देशद्रोह का महिमा मंडन कर रही थी और देश कि कठपुतली सरकार मौन थी। यह बेहद शर्मनाक है। विहिप के आन्दोलन की तुलना कश्मीरी आतंक वादियों से करना मानसिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है। क्या एक परिपक्व लोकतंत्र का अर्थ यह है कि जिसके मन में जो आये बक दे। इस तरफ भी विचार होना चाहिए।

Friday, October 22, 2010

कर्नाटक का नाटक


कर्नाटक का यह राजनैतिक ड्रामा गोवा और झारखंड में हो चुके नाटक की पुनरावृत्ति ही है। सवा ल उठता है कि लोकतंत्र कैसे काम करेगा, यदि इसके रक्षक ही भक्षक बनने पर उतारू हो जाएं? यहां तो विधायक से लेकर मंत्री तक और स्पीकर से लेकर गवर्नर तक सभी अपने अपने हिसाब से खेल खेलने लगे हैं और ऐसा करते समय नियमों और कायदों को अंगूठा दिखाने लगे हैं। ऐसी हालत में अदालत का ही आसरा रह जाता है। राज्यपाल का उत्साह तो इस खेल में देखते बन रहा था। उन्होंने आनन फानन में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। जब केंद्र की सरकार ने उस सिफारिश को गर्मजोशी से नहीं लिया तो फिर राज्य सरकार को दुबारा विश्वास मत हासिल करने को कह दिया। जिन विधायकों को स्पीकर ने विधानसभा की सदस्यता से बर्खास्त कर दिया, वे अदालत की शरण में चले गए और अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखकर और फैसले का दिन आगे खिसकाकर भ्रम को और भी बढ़ाने का काम किया। यह बहुत ही शर्मनाक है कि विधायकों को रिजॉर्ट में ताला लगाकर बंद रखा गया। उन्हें जेट विमानों और हेलिकॉप्टरों की सहायता से पड़ोसी राज्यों मे ले जाया गया। पांच सितारा होटलों में ठहराया गया। यदि इस तरह की घटनाएं घटती हैं, तो फिर सदन में बहुमत परीक्षण की जांच निष्पक्षता से कैसे हो सकती है? एक पूर्व मुख्यमंत्री डी कुमारस्वामी दूसरी पार्टी के विधायकों को भेड़ की तरह दूसरे राज्यों में ले जाते दिखाई दिए और लोकलाज को दरकिनार कर दूसरी पार्टी के असंतुष्ट विधायकों के प्रवक्ता की तरह बोते नजर आए। कांग्रेस का खेल भी इस प्रकरण में गंदा रहा। मुख्यमंत्री ने जिस तरह से सोमवार को विधानसभा में विश्वासमत हासिल किया वह तरीका अनेक सवाल पैदा कर रहा था। स्पीकर ने जिस तरह से भाजपा के असंतुष्ट विधायकों और निर्दलीयों की सदस्यता समाप्त की वह भी कई लोगों को समझ में नहीं आ रहा था। अंत में वह मामा कोर्ट के पास पहुचा। फिर राज्यपा ल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। वह भी आपत्तिजनक था। उसके बाद उन्होंने यू टर्न लेते हुए उस सिफारिश को वापस ले लिया और फिर मुख्यमंत्री से दुबारा बहुमत साबित करने के लिए कह दिया। यह भी काफी दिलचस्प था। केंद्र सरकार को राच्य सभा में बहुमत प्राप्त नहीं है, इसलिए वह कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लागू करने की जोखिम नहीं उठा सकती थी, इसलिए वह भी कोई साफ साफ निर्णय नहीं ले पा रही है। यही कारण है कि कांग्रेस के केंद्रीय आलाकमान ने अपने आपको इस मसले से अलग कर लिया है और उसने सब कुछ केंद्र सरकार पर छोड़ दिया है। संकट का मूल कारण धनबल है। चुनावों में भी काफी पैसे खर्च किए जाते हैं। चुनाव जीतकर विधायकों के बीच ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की चाह पैदा हो रही है। कुछ विधायकों ने तो साफ साफ कहा कि उन्होंने पाला बदल करने के लिए काफी पैसे मिले हैं। पैसा बांटने का यह खेल सरकार विरोधियों तक ही सीमित नहीं रहा है। जनता दल (एस) के कुछ विधायकों का कहना है कि सरकार के समर्थन के लिए उन्हें भी पैसे की पेशकश की गई। यहां एक दिलचस्प बात यह है कि सबसे ज्यादा पैसा देने वाला कुछ समय के लिए तो विधायकों का विश्वास हासिल कर सकता है, लेकिन वह हमेशा के लिए उनका विश्वास नहीं पा सकता। कुछ दिन पहले अपने पैसे की ताकत से खनिज माफिया के रूप मे जाने वो रेड्डी बंधु अपनी पार्टी की सरकार को ही गिराने पर तुले हुए थे, पर आज वे उसे बचाने के लिए चिंतित हैं। इसका कारण है कि उनकी आर्थिक हित वर्तमान सरकार के तहत ही सुरक्षित रह सकते हैं, राष्ट्रपति शासन अथवा कांग्रेस सरकार के तहत नहीं। भाजपा सरकार ने दुबारा विश्वासमत हासिल कर लिया है, लेकिन इस सरकार का भविष्य उज्ज्वल नहीं दिखाई देता। इसका कारण है कि भाजपा के अंदर भी अनुशासन नहीं है। मुख्यमंत्री को हटाने के लिए पार्टी की एक लॉबी ही सक्रिय है। धनशक्ति का भूत भी सरकार को हमेशा सताता रहेगा।

Wednesday, October 20, 2010

कसाब का नया स्टंट

मुंबई में हुए २६/११ आतंकी हमले के एक मात्र जीवित एवं बंदी आरोपी मोहम्मद आमिर अजमल कसाब को उसके किये अपराध के लिए विशेष अदालत मौत की सजा सुना चुकी है। देश में कानून की स्थापित परम्पराओं के पालन के लिए उसे उच्च अदालत में अपील का मौका दिया गया है। इसी के तहत उसे विडियो काम्फ्रेसिंग के जरिये अदालत के सम्मुख उपस्थित होना था। इसी उपस्थिति के दौरान कसाब ने उत्तेजित होकर कैमरे पर थूक दिया। यह कोई सहज खीज या क्रोध की अभिव्यक्ति नहींहै। दरअसल कसाब एक बेहद आला दर्जे का आतंकी है। वह इससे पहले भी जेल में जेलकर्मियों के साथ बल प्रयोग कर चूका है। उसका मकसद हमारे सुरक्षा कर्मियों को मरना पीटना या उन्हें हानि पहुँचाना नहीं है। वह तो बहुत ही शातिराना ढंग से अपनी चलें चल रहा है। कसाब का मकसद सुरक्षाकर्मियों को उकसाना है ताकि वे गुस्से में कुछ ऐसा कर बैठे कि देश और देश के बाहर बैठे आस्तीन के दोस्तों को यह मौका मिल जाये कि वे यह शोर मचा सकें कि भारत गणराज्य में जेलों में बंद कैदियों का जीवन सुरक्षित नहीं है। उसे अच्छी तरह मालूम है कि यह सिर्फ भारत में ही संभव है जहाँ अफज़ल गुरु जैसे आतंकवादियों के समर्थन में लोग नारेबाजी करने से नहीं चूकते। फिर कसाब तो करोड़ों का सिक्का है। अफज़ल गुरु के पैरोकार तुरंत कसाब के लिए भी निकल पड़ेंगे। उनको देश, काल , मान-सम्मान से कहीं अधिक अपनी दुकानदारी कि चिंता है। वे हर उस जगह अपनी टांग अडाये नज़र आयेंगे जहाँ कोई मामला ऐसा नज़र आये जिसमे उन्हें देश के बहुसंख्यक वर्ग को चिढाने और अल्पसंख्यक वर्ग को सब्जबाग के सपने दिखाने के अवसर मिलें। कसाब जानता है कि कोई न कोई तो भारतवासी उसके लिए भी मुठ्ठी तन गेगा। इसलिए वह अपने होने का अहसास दिलाने का प्रयास कर रहा है। कि भाई लोग जागें और मानवाधिकार कि चाबुक उठाकर से सुरक्षाकर्मियों को पीटें। हम हिन्दुस्तानियों कि यही खासियत कसाब जैसों को मेहमान का दर्जा देकर उन्हें अपराधी से सीधे साधू या एक विशिष्ट व्यक्ति बना देते हैं। क्या कसाब कि ही तरह अन्य कैदियों को विशेष सुविधा मिलती है? बिलकुल नहीं। फिर कसाब कि क्या खासियत है ? कुछ तो है जो उसे अब तक एक कैदी से ज्यादा एक मेहमान कि तरहकीdइलवा रही हैं। वर्ना क्यों नहीं उससे भी ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाता जैसा एक सामान्य कैदी से किया जाता है। उसकी विशेषता यही है कि वह २६ /११ का खलनायक है। वह पहला आतंकी नहीं है जो हमारी सुरक्षा व्यवस्था का मजाक उदा रहा है। उसके भी आका हैं जो मौके की तलाश में हैं । हम शायद एक और २६/११ या कंधार का इंतजार कर रहे हैं। ताकि कुछ सिरफिरे फिर यहाँ आयें और कंधार कांड की पुनरावृत्ति करें।तब तक हमें कसाब को पालना ही है। कसाब भी यह सत्य जानता है। और इसीलिए वह वाही हरकतें कर रहहि जो उसके मकसद को पूरा करती हैं।

Saturday, October 16, 2010

क्या चाहते है बुखारी?

लखनऊ। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी तथा उनके समर्थकों ने १५ अक्तूबर को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के गत 30 सितंबर के फैसले के बारे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एक पत्रकार की जमकर पिटाई की।
यह घटना उस समय हुई जब एक उर्दू अखबार के पत्रकार मोहम्मद अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर सवाल पूछा और इस बात पर उनका रुख जानना चाहा कि खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है और उसके बाद वहां बाबरी मस्जिद बनी है। शुरुआत में तो शाही इमाम ने सवाल को टालने की कोशिश की लेकिन पत्रकार के बार-बार पूछने पर बुखारी और उनके समर्थक आपा खो बैठे और पत्रकार पर झपट पड़े।
बुखारी ने चिल्लाते हुए कहा कि इस आदमी को प्रेस कांफ्रेंस से बाहर ले जाओ यह कांग्रेस का एजेंट है। उन्होंने पत्रकार से कहा कि बेहतर होगा कि तुम अपना मुंह बंद रखो। तुम्हारे जैसे गद्दारों की वजह से ही मुसलमानों का अपमान हुआ है।
बाद में, चिश्ती ने आरोप लगाया कि बुखारी अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपने भड़काऊ बयानों से सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने इल्जाम लगाया कि मैंने सिर्फ वर्ष 1528 के भू अभिलेखों में विवादित जमीन के राजा दशरथ के नाम पर दर्ज होने के बारे में बुखारी की राय जाननी चाही थी लेकिन इस पर वह आपा खो बैठे और उन्होंने तथा उनके समर्थकों ने मुझे पीटा।
चिश्ती ने कहा कि हाई कोर्ट के फैसले से ऐन पहले तक बुखारी यह कह रहे थे कि अदालत का निर्णय सभी को स्वीकार्य होगा लेकिन फैसला आने के बाद उनके सुर बदल गए और उन्होंने निर्णय के खिलाफ भड़काऊ बयान देना शुरू कर दिया। वह देश में अमन-चैन कायम नहीं रहने देना चाहते। वह मुल्क में दंगे भड़काना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि देश की एकता और सौहार्द के लिए जरूरी है कि अगर वह जमीन राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है तो उसे हिंदुओं को सौंप दिया जाए।
इसके पूर्व, बुखारी ने संवाददाताओं से कहा कि अयोध्या मामले पर हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह आस्था पर आधारित है और मुसलमान कौम उसे मंजूर नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि अदालत ने संविधान, कानून और इंसाफ के दायरे से बाहर जाकर वह फैसला दिया है।
शाही इमाम ने कहा कि शरई नुक्तेनजर से इस मसले का बातचीत के जरिए हल निकलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है।
बुखारी ने दावा किया कि शरीयत के मुताबिक किसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिए बातचीत करना या आमराय बनाना हराम है। उन्होंने कहा कि बातचीत के जरिए अयोध्या मसले का हल नहीं निकलेगा और इस मुकदमे से जुड़े मुसलमानों के पक्ष में हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए।
अयोध्या विवाद के मुद्दई हाशिम अंसारी द्वारा बातचीत के जरिए मसले की हल की कोशिश किए जाने पर बुखारी ने कहा कि वह अंसारी को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि वह बार-बार अपने बयान बदलते हैं।
शाही इमाम ने अयोध्या विवाद का बातचीत के जरिए हल निकालने की वकालत कर रहे उलेमा को भी आड़े हाथ लिया।एक छोटा सा सवाल यह है की आखिर बुखारी साहब चाहते क्या हैं। क्या यह देश एक मुद्दे को लेकर फिर एक लम्बी कानूनी जंग में उलझे और बुखारी जैसे लीडर इस मुद्दे पर अपनी दुकाने चलते रहे। बुखारी अकेले नहीं है। उनके साथ चलने के लिए हिन्दुओं के भी लीदरiस मुद्दे को लगातार गरम रखना चाहते हैं। निर्मोही अखाडा सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा कर चूका है। मुस्लिम पेरसोनल ला बोर्ड भी सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए ऐलान कर चूका है। क्या मतलब है इसका ? क्या आप मानते हैं की दोनों कौमो के झंडाबरदार यह चाहते हैं की देश में शांति स्थापित हो? बिलकुल नहीं । अब तक का उनका रवैया यही दिखता है की दोनों पक्ष अपनी अपनी जिद पर अड़कर अपने अपने समाज में गैरजरूरी उत्तेजना फैलाना चाहता हैं। हाई कोर्ट के फैसले के बाद भी देश में रही शांति इन लोगो से देखि नहीं जा रही है। मौलाना बुखारी आग उगलने से परहेज नहीं कर रहे है। लगभग यही हाल दूसरी और भी है। इसके लिए इन लोगो को विशेष श्रम करना पद रहा है। वे राख में अंगारा खोज रहे है।
ताकि देश को फिर सुलगाया जा सके। १९९२-९३ की पुनरावृत्ति ही इनका उद्देश्य है। देश को सांप्रदायिक कुरुक्षेत्र में बदलना उद्देश्य है इन शक्तियों का। इसलिए देशवासियों को बहुत सावधान रहने की जरुरत है। यह समय संयम की परीक्षा का है। बुखारी और तोगड़िया जैसे स्वयंभू धार्मिक नेताओं को बकने दीजिये।

Wednesday, October 13, 2010

फिर मोदी


गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में एक बार फिर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू चला है। अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत, भावनगर, राजकोट और जामनगर में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया है।
जाहिर है कि अब मोदी और उनके आलोचकों को कुछ बोलते नहीं बन रहा होगा। महत्वपूण यह है कि ये चुनाव तब हुए जब मोदी और गुजरात सरकार सोहराबुद्दीन मुठभेड़ तथा इशरत जहाँ मामलों को लेकर देश भर में विपक्ष की aआलोचनाओं के निशाने पर थी। परिणाम एक बार फिर भाजपा विशेषकर मोदी के पक्ष में गए हैं। पूरी ईमानदारी से यदि विश्लेषण किया जाए तो अब यह सत्य स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि मुसलमानों और भाजपा के बीच गुजरात में दूरियां कम हुई हैं। अब इसी बहाने यह भी म्स्वीकर किया जाना चाहिए कि बार-बार भेड़िया आया की रत लगा कर आप किसी को अधिक मूर्ख नहीं बना सकते । गुजरात की जनता जिनमे मुस्लमान भी शामिल है , ने वहां विकास को वोट किया है न कि किसी नरेन्द्र मोदी या पार्टी विशेष को। अपने विरोधियों के तमाम वारों को झेलने के वावजूद मोदी हर बार और ज्यादा मजबूत होकर उभरते हैं तो इसके पीछे उनकी विकासोन्मुखी सोच और गुजरात राज्य की जनता को समग्र गुजराती जनता के तौर पर देखना तथा तदनुसार ही राज्य की नीतियों का निर्धारण करना प्रमुख है। किसी भी राज्य के विकास में यह तत्त्व बहुत महत्वपूर्ण है कि जब राज्य की जनता के लिए विकास की योजनायें बने जाएँ तब बिना किसी भेदभाव के उन पर अमल हो और उनका लाभ राज्य के प्रत्येक नागरिक को सामान रूप से मिले। मोदी यह कम करने में सफल रहे हैं। इसलिए जीत का सेहरा उनके ही सर पर बंधा जाए तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि होती है तो यह उसकी अपनी समस्या है लेकिन आत के युवा भारत का मतदाता गड़े मुर्दे उखाड़ने में विश्वास नहीं करता। आखिर आज किसी १८-२० साल के बच्चे को बार-बार बाबरी मस्जिद या राम जन्म भूमि की कहानी सुनाने से उसका क्या भला होना है? आज का युवा शांति चाहता है। आप उसे बार-बार भावनात्मक रूप से इस्तेमाल नहीं कर सकते। यही युवा आपका वोटर भी है जिसे अपने आस पास विकास चाहिए न की थोथे आश्वासन। साथ ही उसे एक धर्मं विशेष की चारदीवारी से भी मुक्ति चाहिए। गोधरा- गोधरा की रत लगाकर मोदी को मुस्लिम विरोधी साबित करने की कोशिश हर बार यदि नाकाम होती है तो इसका एक ही कारन है कीगुजरात का मुस्लिम मोदी को अपना दुश्मन नहीं मानता । नितीश कुमार को भी समझ आना चाहिए।

Tuesday, October 5, 2010

he ram

आखिर चार दिन के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अयोध्या विवाद को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का ऐलान कर दिया है। जाहिर है कि भाई लोग नहीं चाहते कि इस विवाद का कोई अंत हो। मतलब साफ़ है कि कुछ लोगो को बिना अयोध्या के अपना अस्तित्व ही नज़र नहीं आता इसलिए अपनी रोटी चलने के लिए उनको यह विवाद जिन्दा रखना ही है। क्योंकि वे जानते है कि जब तक यह विवाद रहेगा उनकी दुकान चलती रहेगी। अयोध्या में विवादित जमीन पर मालिकाना हक संबंधी हाल में निस्तारित मुकदमे के प्रमुख पक्षकार सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने मंगलवार को हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का ऐलान किया। साथ ही कहा कि उसने मसले का बातचीत के जरिए हल निकालने के लिए अब तक किसी भी व्यक्ति को अधिकृत नहीं किया है।
बोर्ड के अध्यक्ष जफर अहमद फारूकी ने बताया कि बोर्ड की आज हुई आपात बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ द्वारा गत 30 सितंबर को सुनाए गए फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी।
उन्होंने बताया कि बैठक में स्पष्ट किया गया कि बोर्ड ने मसले के समाधान के लिए बातचीत करने को अब तक किसी को भी अधिकृत नहीं किया है।
गौरतलब है कि अयोध्या में विवादित जमीन संबंधी मुकदमे के पक्षकार हाशिम अंसारी ने पिछले दिनों विवाद का बातचीत के जरिए हल निकालने की कवायद शुरू करते हुए कहा था कि वह सुन्नी वक्फ बोर्ड के कहने पर ऐसा कर रहे हैं।
बोर्ड के बयान के मुताबिक बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय भी लिया गया कि मामले के पक्षकारों की तरफ से अगर सुलह-समझौते का कोई प्रस्ताव आता है तो बोर्ड के अध्यक्ष को उस पर फैसला लेने का अधिकार होगा।
बोर्ड के अध्यक्ष को यह भी अधिकार दिया गया कि वह हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध अपील तथा अन्य कानूनी कार्रवाई के सिलसिले में जरूरी कार्रवाई करें। इस बीच, बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने संगठन द्वारा सुप्रीम कोर्ट में कल चुनौती याचिका पेश करने की अटकलों को खारिज करते हुए कहा सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर करने के लिए हाईकोर्ट के फैसले की सत्यापित प्रति प्राप्त होना जरूरी है। वह प्रति अब तक जारी नहीं हुई है लिहाजा कल याचिका पेश किए जाने का सवाल ही नहीं उठता।

Sunday, October 3, 2010

मोदी और बिहार

बिहार में चुनावी बिगुल बज चूका है। भारतीय जनता पार्टी के प्रचारकों की सूचि में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम नहीं है। कहा जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार नहीं चाहते कि मोदी बिहार आयें। कारण समझा जा सकता है। देश को जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय, क्षेत्र, संस्कृति और विश्वास कि संकीर्णताओं से मुक्त रखने और राजनीति में इनके प्रयोग से दूर रहने वालों के कथन और आचरण का अन्तर स्पष्ट देख जा सकता है। मोदी की तरह ही भाजपा के एक और तेज तर्रार युवा नेता वरुण गाँधी भी भाजपा प्रचारकों की सूची से गायब हैं। नितीश बाबु को लगता है कि यदि भाजपा के ये दो रत्न चुनाव प्रचार से दूर रहे तो मुस्लमान मत नहीं बिखरेंगे और उनकी पार्टी जद यु को ही मुसलमानों के मत मिलेंगे। यह जातीयवादी राजनीति नहीं तो और क्या है। सवाल यह है कि जब मोदी मान्य नहीं तो उनकी पार्टी इतनी प्रिय क्यों। दरअसल यह गठबंधन की बजाय मजबूरी की राज नीति है। इसे ही अवसरवाद और दुसरे शब्दों में कहें तो तुष्टिकरण की राजनीति कहा जा सकता है। गुड खाकर गुलगुले से परहेज की राजनीति है यह। इसे सिद्धांतो की राजनीति कतई नहीं कहा जा सकता। वैसे भी भारत की वर्तमान राजनीति में सिद्धांत जैसे शब्द कालबाह्य से हो गए हैं । यह एक राजनैतिक ह्रास और बिडम्बना का विषय हो सकता है। वरुण गाँधी अपनी फायरब्रांड वाक्शैली के लिए कुख्यात/विख्यात हैं। भाजपा अच्छी तरह जानती है किआने वाला कल युवाओं का है। युवा मन भावुक होता है। वह होश की बजाय जोश से कम लेता है। इसलिए वरुण भले नितीश के लिए दायित्व हों भाजपा के लिए तो संपत्ति ही रहेंगे। मोदी तो भविष्य की भाजपा के ब्रांड अम्बेस्डोर हैं। इसलिए नितीश के चाहने और न चाहने का भाजपा पर कोई असर नहीं पड़ने वाला लेकिन भाजपा के साथ खड़े होकर नितीश अपने ही हमाम में वस्त्रविहीन नज़र आते हैं।

Saturday, October 2, 2010

bhavanaon ko samjho


यह चित्र देख रहे हैं आप अयोध्या प्रकरण पर फैसले के बाद शहर फिर से अपनी रौ में है। था। शुक्रवार, 1 अक्टूबर को जीरो रोड स्थित जामा मस्जिद के नीचे दुर्गा मिस्त्री की दुकान पर मुजाहिद हुसैन, आबिद हुसैन और पन्नालाल मिले तो वही बतकही का सिलसिला चल पड़ा। दुआ-सलाम के बाद बात रोजी-रोटी, दुनिया के हाल और घर के हालात तक जा पहुंची। एक दिन पहले के माहौल का कहीं नामोनिशां नहीं था.जी हाँ यही है अयोध्या और भारत राष्ट्र की भावना । राजनीती लेकिन अब भी अपनी बिसात बिछाने से नहीं चूक रही है । मुलायम सिंह यादव को इस से कोई मतलब नहीं है और वे अयोध्या मसाले पर आये फैसले के खिलाफ बोलने में अपनी पूरी ऊर्जा से लगे हैं। शाही इमाम भी इसी लाइन पे हैं। लेकिन उनको नहीं मालूम कि अधिकांश मुस्लिम नेताओं की राय है कि इस संवेदनशील मुद्दे पर सभी को संयम बरतना चाहिए और किसी को भी ऐसी कोई बयानबाजी नहीं करनी चाहिए, जो राजनीति से प्रेरित लगती हो और जिससे माहौल के बिगड़ने की आशंका हो।
आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य और ईदगाह के नायब इमाम मौलाना रशीद फिरंगी महली ने कहा कि पूरे देश में दोनों समुदायों के धार्मिक नेताओं, राजनेताओं और मीडिया ने इस संवेदनशील मुद्दे पर पूरी जिम्मेदारी और संयम का परिचय दिया है। यह रुख आगे भी बना रहना चाहिए और किसी को भी ऐसी कोई टिप्पणी नही करनी चाहिए, जो राजनीति से प्रेरित लगती हो और जिससे सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की आशंका हो।
फिरंगी महली ने कहा कि संघ परिवार से लेकर सभी ने अब तक परिपक्वता का परिचय दिया है और यह संयम पूर्ण व्यवहार आगे भी बना रहना चाहिए और ऐसी कोई बयानबाजी नही होनी चाहिए, जिससे फिरकापरस्त ताकतों को हरकत में आने का मौका मिलता हो। यह कहते हुए कि हालांकि हाई कोर्ट के फैसले से मुस्लिम समुदाय के लोगों में मायूसी का भाव है, फिरंगी महली ने जोर देते हुए कहा कि देश के व्यापक हित को देखते हुए हर एक को संयम बरतना चाहिए और ऐसी प्रतिक्रिया से बचना चाहिए, जिससे सांप्रदायिक सौहार्द और अमन में खलल पड़ने की आशंका हो।
फिरंगी महली की ही तरह इस्लामी शोध संस्थान दारुल मुसिन्नफीन के मौलाना मोहम्मद उमर ने कहा कि हालांकि उन्होंने [मुलायम] मुस्लिम समुदाय की भावनाओं की ही बात कही है। मगर टिप्पणी करने के लिए यह समय उचित नहीं है।
शिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद मिर्जा अतहर ने कहा कि ऐसे समय जब हर आदमी समाज में अमन और शांति बनाए रखने की कोशिश में है और मुलायम सिंह यादव जैसे बड़े नेता की तरफ से आए इस तरह के बयान से आश्चर्य होता है। उन्होंने कहा कि किसी भी अदालती मामले में एक पक्ष जीतता है, दूसरा हारता है और जब हाई कोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का रास्ता खुला है और विवाद को आपसी सहमति से सुलझा लेने का विकल्प भी सामने है तो इस तरह की टिप्पणी गैर जरुरी लगती है।
मौलाना अतहर ने कहा कि कोई राजनेता अपने राजनीतिक हित साधने के लिए टिप्पणी करे यह स्वाभाविक है। मगर ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर जिसमें दो समुदाय आमने सामने हो व्यापक राष्ट्रहित में ऐसी बयानबाजी से बचा जाना चाहिए। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के एक अन्य सदस्य एवं प्रतिष्ठित शिया उलेमा मौलाना हमीदुल हसन ने यादव के बयान पर कोई टिप्पणी करने से इंकार किया है। हालांकि, उन्होंने भी कहा कि सभी को संयम का परिचय देना चाहिए और ऐसी किसी भी बयानबाजी से बचना चाहिए, जिससे सांप्रदायिक एकता खंडित होने की आशंका हो।
आल इंडिया सुन्नी बोर्ड के मौलाना मोहम्मद मुश्ताक ने कहा है कि अपने वादों और अपीलों का मान रखते हुए किसी भी मुस्लिम नेता ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की है, जिससे माहौल बिगड़े और जुमे की नमाज के बाद भी यह अपील फिर दोहराई गई है कि आपसी शांति और सौहार्द बनाए रखने में सबको सहयोग देना है।
गौरतलब है कि शुक्रवार को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने एक बयान जारी करके कहा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में आस्था को कानून तथा सुबूतों से ऊपर रखा है और देश का मुसलमान इस निर्णय से खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।

Friday, October 1, 2010

अब जागने का वक़्त

अयोध्या स्थित श्रीराम जन्म भूमि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक फैसला आ चूका है । भाई लोग फैसले का छिद्रान्वेषण करने में लग चुके है। सभी खुश है और सभी अचंभित भी कि जितना बड़ा हौवा खड़ा किया था वैसा तो कुछ नहीं हुआ । चैनलिया चतुर तो ३० सितम्बर के दिन सुबह से ही कम पैर लगे थे। टी आर पी बढ़ने कि होड़ सी मची थी। जनता ने तो सुबह से ही तय कर लिया था कि ३.३० बजे से पहले हर हाल में घर वापस आ जाना है। एक स्वतंत्र देश के नागरिक के सिर चढ़ कर भय और आतंक ने उसे सहमने पर मजबूर कर दिया। क्यों? १९९२ का मंजर उसे याद रहा और उसने अयोध्या मामले के फैसले के दिन मौन के माध्यम से यह स्पष्ट सन्देश दिया कि अब इस मामले को और उलझाने कि जरुरत नहीं है। यह ठीक है कि माननीय उच्च न्यायालय ने इस मामले के सभी पक्षकारों को निराश नहीं किया है किन्तु इसके वावजूद भी यदि अदालती फैसले के प्रति विरोद्क के स्वर उह्टने लगे। तो यह न्याय प्रणाली के प्रति अविश्वास कि अभिव्यक्ति ही कहा जायेगा। जब आपको अदालत का फैसला नहीं मानना था तो आप अदालत गए ही क्यों थे? प्रश्न सहज ही यह भी स्पष्ट करता कि अब कम से कम राम लला के लिए अपने साथ पडोसी को भी रखने कि जिम्मेदारी निभानी होगी। मन्दिर वही बनायेंगे का नारा लगाने वाले धर्मध्वजा लहराने वाले अब क्या करेंगे क्योकि अब तो रामलला के साथ ठीक उनके बाजू में ही अल्लाह हो अकबर और या इलाही लिल्लैहा कि सदायें भी गूंजेगे। अब तो राम और उनके मानने वालो पर दोहरी जिम्मेदारी आ गयी है। राम ने कभी भी किसी से भी द्वेष नहीं किया। रावन से भी नहीं। तभी तो जब विभीषण को संकोच सहित लंका बुराईका राज्य देने का संकल्प लिया तब कही न कही उनके मन में यह प्रश्न मथ रहा था कि यदि कल रावण भी शरण में आ गया तो उसे क्या दूंगा । पर अगले ही पल सोच लिया कि यदि रावण भी शरण में आ गया तो उसे अवधेश बना दूंगा। लगभग वही स्थिति आ गयी है । फैसले के बहाने मीन मेख निकालने कि कवायद में जुटे लोगो कि शंकाओं कुशंकाओं का कोई अंत नहीं है।सच तो यह है कि इस फैसले ने दोनों पक्षकारों को एक साथ बैठकर यह तय करने का अवसर प्रदान किया है कि अब तीनो पड़ोसियों को किस तरह साथ रहकर आगे बढ़ना है। बिना साथ बैठे औए एक सर्वमान्य सहमति बनाये बिना इस मामले का पताखेप नहीं हो सकता। फिर भी यदि भाई लोग कुछ अतिरिक्त कसरत करना चाहते हैं तो कर लेने में मुझे बुराई नज़र नहीं आती। लेकिन इस कवायद का अर्थ यह भी होगा कि हम इस मामले को सुलझाने कि बजाय यूँ ही उलझाये रखना चाहते है ताकि भविष्य में भी हमारी आने वाली पीढियां इस बेबुनियाद मामले पर उलझी रहें। क्या कभी हमने यह सोचने की कोशिश की कि जिस कालखंड में विवादित मुस्लिम उपासना स्थल के निर्माण कि बात कि जा रही है लगभग उसी कालखंड के आस पास हिंदी के महान संत कवि तुलसीदास ने
विश्व वन्दनीय कृति श्री राम चरित मानस कि रचना कि थी उन्होंने कहीं भी इस घटना का जिक्र नहीं किया है। जैसा कि विवादित स्थल पर मस्जिद बनाने के बारे में सन १५२८ का जिक्र होता है। तुलसी जी का उदहारण देने के मेरे अपने तर्क हैं। अपने समकालीन बादशाह की कुछ जनविरोधी नीतियों का उन्होंने मानस के माध्यम से स्पष्ट विरोध किया । कई उद्धरण मिल जायेंगे । उनके पहले के भी साधू संतों की और से कही कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह प्रमाणित होता हो की उस जगह पर बाबर या उसके कहने पर किसी ने मस्जिद बनवाई हो। लगभग ५००-५५० वर्षो का इतिहास है। विश्व में कितने ऐसे वास्तु हैं जो इतने वर्ष के बाद भी बचे हों। फ्हिर श्री राम तो १० हजार से भी अधिक वर्ष पहले हुए थे।उस समय का कोई भी भग्नावशेष अब मौजूद नहीं है। फिर रामजन्मभूमि की वास्तविक स्थिति तय करना बहुत ही कठिन है। इसलिए बेहतर यही है की अब सभी पक्ष अपने अपने अहम् छोड़कर अदालत के फैसले का सम्मान करें और अयोध्या के नाम को सार्थकता प्रदान करें।

Tuesday, September 28, 2010

हे अयोध्या !

लो अब अयोध्या पर फैसले की तारीख भी तय हो गयी है। फिर एक सहमी सहमी सी सनसनी सी है कि क्या होगा । लेकिन एक बात ध्यान रखनी होगी कि इस बार ऐसा कुछ भी न हो कि मानवीयता का चेहरा शर्मशार हो। जिन लोगों ने १९९२-९३ के दंगों को देखा भोगा झेला है उनसे पूछो कि दंगों की विभीषिका क्या होती है? आप नेताओं से ये उम्मीद न करो की वे इतने संवदन शील है की आपकी पीड़ा को समझा सकें। उनको आपकी पीड़ा , आपके कष्टों से कुछ लेने देना नहीं है। वे तो एक ऐसे मौके की तलाश में हमेशा रहते हैं कि कब आप किसी मुद्दे पे अपनी बाहें चढ़ाये और वे आपके हाथों में पत्थर थमा सकें। यही होता रहा है अभी तक। ६ दिसम्बर १९९२ के दिन कारसेवकों का जो रेला श्रीराम जन्मभूमि के आस पास इकठ्ठा हुआ था उसका मकसद विवादास्पद ढांचे को गीराना नहीं था बल्कि वह भीड़ तो एक उन्माद में आकर शक्ति प्रदर्शन के लिए इकट्ठी हुई थी। फिर ढांचा गिरा कैसे? यह प्रश्न वास्तव में अनुत्तरित है । क्योकि कारसेवा के लिए जो लोग अपने घरो से रवाना हुए थे उनके हाथों में कुदालें नहीं थी। न ही उनके पास ऐसी कोई सामग्री थी जिससे वे ४०० साल पुराने ढाचे को गिरा सकते। दरअसल उस भीड़ को इकठ्ठा ही इसलिए किया गया था जिसकी आड़ में विघ्नसंतोषी लोगों को अपना काम करना था । काम हो गया। एक ढाँचे के लिए यह देश एक युद्धभूमि में तब्दील हो गया था। ओने आस्रिन के दोस्तों को एक मौका चाहिय था दो कौमों के बीच फूट डालने का जो उन्हें मिल गया। अब वाही तत्व मिलकर इस मामले को उछलने में लग गए हैं। लेकिन यह भी आधा सच है। अयोध्या के मसले को घोर संकीर्णता के चश्मे से देखने की हमारी आदत ने हमें विवेकशून्य सा कर दिया है । जरा सोचिये अयोध्या से लाभ हानि किसे है। पहले अदालत को सब कुछ मानना फिर अदालत को अपना काम करने से रोकने की कोशिश करना। यह विरोधाभासी चरित्र क्यों। इस उरे मामले में कांग्रेस की भूमिका भी कम गैरजिम्मेदाराना नहीं है।वह इस मुद्दे पर लगातार दोहरी भूमिका में नज़र आई है। इसलिए उसे इस मुद्दे को जिन्दा रखना ही है। मगर एक खतरा जो लोग देखने की कोशिश नहीं कर रहे । वह यह है की कश्मीर में जिन लोगों ने भीड़ को पत्थर पकड़ा दिए वे ही लोग अयोध्या की आंधी में फिर खुनी खेल खेलना चाहते हैं । इसलिए सावधान रहने की जरुरत है। देश का एक बड़ा भूभाग जलप्लावन से जूझ रहा है। ऐसे में दंगा करने की फुर्सत किसे है।

Sunday, September 26, 2010

एक बार phir अयोध्या का जिन्न बाहर आ गया है । देश के स्वायंभू kअर्न्धारों अपने अपने तरह से इस विवाद पर मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। अदालत के संभावित फैसले को लेकर कयासों का दौर तेजी से अपना काम कर रहा है। लगता है देश में अयोध्या के सिवा कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं बच है। आलम यह है की आम आदमी सहमा हुआ है। उसे डर है कि कही १९९२ कि पुनरावृत्ति न हो जाए। १९९२ के घाव अभी तक भरे नहीं हैं। जिन लोगों ने अयोध्य के विध्वंश कि साजिश की वे देश की शीर्ष सत्ता तक पहुचने के बाद भी इस विवाद का कोई सकारात्मक हल नहीं निकाल सके। जो लोग खुद को बाबरी मस्जिद का सबसे बड़ा हितैषी बता रहे थे वे भी सत्ता तक पहुँचने के बाद भी इस मसाले पे ज्यादा मुखर होकर कभी सामने नहीं आये। अब जबकि अदालत इस मसले के सन्दर्भ में किसी निर्णायक स्थिति में पहुंची है तो उसे भी फैसला देने से रोके जाने की कोशिशें हो रही हैं। क्या सचमुच अयोध्या मामले का हल अदालतों के माध्यम से निकालने की कोई संभावना है? यह प्रश्न इसलिए जरुरी हो जाता है जब अदालत में पहुंचे दोनों पक्ष अपनी अपनी आस्था के मुद्दे पर टस से मस न होने के लिए राजी नहीं है। इस बीच इस मुद्दे को लेकर विभिन्न प्रचार माध्यम के जरिएaइसा माहौल बनाने के प्रयास भी हो रहे हैं जैसे अयोध्या की सम्बंधित विवादस्पद भूमि पर एक धर्म विशेष का जन्मसिद्ध अधिकार हो। आस्था और यकीन के बीच का यह संघर्ष सहज ही थमने वाला नहीं है।

Saturday, April 17, 2010

हे देश !

क्रिकेट के खेल के राज धीरे धीरे खुल रहे हैं .देश के दिग्गज व्यापार घराने हजारों करोड़ रुपये लेकर मैदान में उतारे है। क्या इससे देश का विकास होना है ? या धन का भोंडा प्रदर्शन है यह ? कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि इस देश के आधे से अधिक गाँव आज भी विकास के लिए तरस रहे हैं और हमारे ही समाज के बड़े लोग अपने मज़े के लिए हजारो करोड़ लुटाने को उतावले हो रहे है मगर किसी को सेष या देशवासियों की कोई चिंता नहीं है कोई भी बड़ा घराना देश के अविकसित गाँव को गोद लेना नहीं चाहता , क्यों ?

Friday, April 2, 2010

saniya

सानिया को भा गया बालम पाकिस्तानी
आहें भरते फिर रहे कुवाँरे हिन्दुस्तानी
मज़ा मिलकर ले रहे सब के सब भरपूर
छोरी हैदराबाद की मस्ती में है चूर
एक अरब के देश में मुस्लिम बीस करोड़
पर कोई ऐसा नहीं जो ले रिश्ता जोड़

Wednesday, March 17, 2010

mahamaya

भोले बाबा बतलाइए क्या होती है माया
सुनकर मेरा सवाल डमरू वाला मुस्काया
माया महा ठगनी सुन लो भक्त हमारे
सपा भाजपा कांग्रेस सब माया के मारे
विकास के द्वार पर पड़ा रहेगा ताला
बहन जी को चाहिए नोटों वाली माला।
बाबाजी अब कह रहे
लड़ेंगे अगला चुनाव
बदलेंगे इस देश में
राजनीती का भाव
स्वाभिमान के नाम से
चेले चुनाव लड़ेंगे
बाबा कुटिया में बैठकर
प्राणायाम करेंगे
नेताओं की जलने लगी
देखो यारो छाती
संसद में अब होएगी
रोज कपाल भाती

Tuesday, February 9, 2010

अपन फिर राहुल गाँधी पर लौटते है। कान्ग्रेस्सियो ने राहुल यात्रा को ऐसे प्रोजेक्ट किया जैसे शिवसेना पर भरी विजय पा ली हो। सबसे पहले तो यही समझ नहीं आ रहा की अचानक राहुल बाबा को मुंबई आने की क्या सूझी? न तो चुनाव है, न ही ऐसा कुछ विशेष घटित हुआ है कि उनकी यात्रा का कारण बनता। खैर उस दिन जिस मुस्तैदी से पुलिस रस्ते पर थी उससे एक बात तो स्सफ हो ही जाती है कि कानून का डंडा सब पर भारी पड़ता है । पता नहीं ये पुलिस
तब कहाँ होती है जब मुंबई कि सडको पर निरपराध पर प्रांतीय पिट रहे होते है?

Friday, February 5, 2010

देश में करने के लिए कोई काम नहीं है । इसलिए भाई लोग बिजी है । राहुल गाँधी को मुंबई में रहने वाले बिहारियों और अन्य हिन्दीभाषी प्रदेशों के लोगो की चिंता अचानक हुई या बिहार और यूपी के चुनावी गणित के मद्देनज़र यह प्रेम जागा यह बाद में तय होगा । पर एक बात ईमानदारी से मान लेनी चाहिए कि निकट भविष्य में मुंबई में गरीब उत्तर भारतीयों को मुंबई के तथाकथित झंडाबरदारों की गुंडा गर्द्दी का शिकार होना पड़ेगा। ये वे गरीब लोग होते है जो न केवल मुंबई बल्कि उनके भी गालियों के सहज शिकार हो जाते है जो मुंबई में आकर थोड़े बड़े हो गए है। इसकिये जब राहुल बाबा को चिंता हुई तो उनसे ज्यादा चिंता मुख्यमंत्री को हो गयी । जब तक यह बीमारी समझ में आती लगभग आधे से ज्यादा मुंबई कांग्रेस को चिंता हो गयी। सभी एक स्वर में समवेत चीत्कार कर उठे कि बर्दाश्त नहीं करेंगे। सवाल यह है कि हम किस भारत निर्माण की बात करते है , क्यों गाते है पंजाब सिंध गुजरात मराठा से लेकर विन्ध्य ,हिमाचल यमुना गंगा तक का देश गान । बहुत दिनों के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी लगा कि अब हम भी बता दे कि भारत सबके लिए है। महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के पहले तक न तो राहुल बाबा और न ही संघ और उसके मानस वारिस भारतीय जनता पार्टी को यह दिव्य ज्ञान हुआ कि मुंबई सब की है। क्यों? अब राहुल बाबा की मुंबई यात्रा के दर्शन कर लिए जाएँ। हुजुर को बाबासाहेब आंबेडकर के प्रति सम्मान व्यक्त करना था पर इसके लिए प्रतिमा घाटकोपर पूर्व की रमाबाई आंबेडकर नगर की चुनी । मेरी अब तक की जानकारी यह है कि दादर स्थित चैत्य भूमि पर जाकर लोग (राहुल बाबा जैसे ) बाबासाहेब के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते रहे

Monday, February 1, 2010

इन दिनों मुंबई को लेकर बहस छिड़ी है की आखिर मुंबई किसकी है? यह सवाल नया नहीं है .हर बार मुंबई को राजनीतिक कारणों से केंद्र में रखकर बयानबाज़ी की जाती रहीं है । शिवसेना जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ तो ऐसे भावनात्मक मुद्दों की पहली दावेदार होती है। कितने अफ़सोस की बात है की आजाद हिंदुस्तान में हर हिन्दुस्तानी भाषा; क्षेत्र;वर्ण आदि के नाम से अलग अलग टुकड़ों में बटा है। आज एक बार फिर भाई लोग मुख्गर्जना कर रहे है। सवाल यह है की आखिर मुंबई का असली मालिक कौन है? मुंबई किसकी है? जो लोग इसे अपना बताने का दावा कर रहे है उन्हें यह हक़ किसने दिया राजनीतिक गुंडागर्दी का यह सबसे वीभत्स रूप है । आप समर्थ है तो इसका अर्थ यह है की आप जो कहे वाही सच , बाकि सब गलत। जबकि अगर मुंबई शिवसेना या मनसे की होती तो विधानसभा चुनावो के ये नतीजे साफ़ इशारा करते है की मुंबई सहित महाराष्ट्र पे किसका अधिकार है। मगर जिन्हें धृतराष्ट्र जैसा दृष्टिदोष होता है उनके लिए इस तार्किक बहस का कोई अर्थ नहीं है। अपन इस ब्लॉग पर सिर्फ इसलिए सर खपा रहे है की कोई तो इन आँख वाले अन्धो कोसाही रास्ता दिखाए। कित्नस हास्यास्पद है की आस्ट्रेलिया में की स्थिति में चीख पड़ने वाले इस देश के वीर लोग महाराष्ट्र.;अथवा देश के अन्य भागो में दुसरे प्रान्तों से आये लोगो पर हुए अत्याचारों के खिलाफ मौन साध जाते है। क्या यह नस्लवाद नहीं .

देशी naslwad

Sunday, January 31, 2010

अमर माया मोह

सी डी वाले अंकल की
बदल गयी है भाषा
बहनजी के वंदन अर्चन की
जाग गयी अभिलाषा
बोले गेस्ट हौउस में
हुयी जो मार-पिटाई
पहले दिन से ही हमको
बात पसंद न आई
बातो में जब से दिखा
सपा के प्रति विद्रोह
लगता जैसे हो गया
अमर को माया -मोह !

Friday, January 22, 2010

पाकिस्तानी विलाप

२६/११ जैसे हमले हिंदुस्तान में फिर न होने की गारंटी देने से पाकिस्तान ने इंकार कर दिया है। उसका कहना है कि जब घरेलु मोर्चे पर ही वह हमले नहीं रोक पा रहा तो मुल्क के बाहर किसी दूसरे मुल्क में हमले न होने की गारंटी कैसे दे सकता है। अमेरिका के गृह मंत्री रोबर्ट्स गेंट्स के साथ मुलाकात के वक़्त पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यह विचार प्रस्तुत किये है। दरअसल पाकिस्तान की यही समस्या है कि आतंक के खिलाफ खुलकर बोलने कि अपेक्षा वह बात को घुमाकर सारी बहस का रुख विपरीत दिशा में मोड़ने का कुचक्र रचता रहा है। इसके लिए या ऐसा करने के पीछे उसकी अपनी मजबूरियां है। पहली मज़बूरी तो यही है कि उसने अपने भस्मासुर खुद तैयार किये है। ये भस्मासुर पाकिस्तान क़ी बेलगाम खुफिया एजेंसी आई एस आई ने कभी भारत के भीतर आतंक मचाने तो कभी अफगानिस्तान में बिरादरों क़ी हिफाजत के लिए अलग अलग नामो और झंडों डंडों के साथ खड़े किये थे। जब तक वे पाकिस्तान और अमेरिका के हितों क़ी रक्षा में व्यस्त थे तब तक न तो पाकिस्तान और न ही अमेरिका को किसी तरह क़ी कोई तकलीफ हुई । लेकिन जब यह भस्मासुर अपने जनक को ही मारने पे आमादा हो गया तब उनका चिंतित होना स्वाभाविक था। २६/११ के बाद से पाकिस्तान में रोजाना कही न कही aआत्मघाती हमले हो रहे हैं। क्या ये हमले भी पाकिस्तान क़ी अपनी ही बेवकूफी का सबब नहीं है .खास बात तो यह है कि अब ये भस्मासुर पाकिस्तानी हुक्मरानों के नियंत्रण से बाहर हो गया है और अपना खुद का शासन स्थापित करना चाहता है। अफगानिस्तान में भी येही हुआ था जब सोवियत सेनाओ से लड़ते लड़ते तालिबान खुद को मुल्क का मालिक समझ बैठा और अपने आकाओ के नियंत्रण से बाहर हो उत्पात मचाने लगा । जाहिर है अब पाकिस्तान किस मुह से कहे कि उसकी जमीं से दीगर मुल्क में गड़बड़ी नहीं कराएगा

Thursday, January 21, 2010

एक और दुकान

बाज़ार के बड़े खिलाडियों की नज़र taxi वालों पर पड़ी और महाराष्ट्र की सरकार ने रास्ता बनाने की कवायद भी शुरू कर दी। सरकार ने फ़रमाया की अब किसी भी taxi का नया licence लेने के लिए सम्बंधित व्यक्ति का मराठी भाषा का ज्ञान और राज्य में कम से कम १५ वर्ष kअ निवासी होना जरुरी होगा। इसके पक्ष में सरकार ने १९६४ के नियमो का हवाला देते हुए कहा कि १९८९ tअक्सी का परमिट लेने के लिए भी यही शर्त थी। अब केवल उस पर कडयी से अमल किया जाएगा। ज़ाहिर है कि इस सरकारी फलसफे के पीछे एक सोची समझी राजनीतिक जोड़ घटा का गणित है। सरकार यह दिखाना चाहती है की उसे मराठी और मराठी भाषा से कितना प्यार है। शायद इसके पीछे कुछ और भी हेतु हो मगर इतना तो साफ़ है कि यह कोई राजनीतिक स्टंट

नहीं है। तो फिर क्या हो सकता है इसे जानने कि जरुरत है। दर असल स्थानीय होने कि शर्त के पीछे के हेतु अलग हैं। मुंबई में करीब ५० हज़ार लोग taxi परमिट धारक हैं। इसके अलावा करीब ८ हज़ार लोग कूल taxi के चालक अथवा मालिक हैं। दो हज़ार लोग निजी taxi के धंधे में व्यस्त हैं। ७४ महिला taxi भी मुंबई में सड़कों पर हैं। सरकार जिस मराठी भाषा कि जानकारी जरुरी होने कि शर्त taxi चालकों व मालिकों पर लाद रही है उसकी सच्चाई यह है कि बमुश्किल १५ फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जो मराठीभाषी हैं और taxi के धंधे से जुड़े है। महाराष्ट्र के परिवहन मंत्री राधाकृष्ण विखेपाटिल के मुताबिक कुछ स्थानीय और कुछ बाहर के आपरेटर्स चाहते हैं कि taxi के धंधे में उतरें। इस लिए सरकार ने नए परमिट के लिए न्यूनतम एक लाख रुपये प्रति परमिट नीलामी मूल्य रखा है। यही वह विन्दु है जहाँ सरकार की नीयत पर शक होता है। ज़रा सोचिये एक लाख का परमिट , दो से तीन लाख की taxi अर्थात कम से कम ४ लाख रुपये हों तभी कोई व्यक्ति taxi खरीदने के बारे में सोचे। ऊपर से राज्य निवासी हिने कि शर्त । सभी जानते है कि सामान्य मेहनत मजदूरी करने वाला वर्ग निवासी प्रमाणपत्र जैसी औपचारिकताएं किस हद तक पूरी कर पायेगा या ऐसी अनिवार्यताएं पूरी करने कि उसकी सामर्थ्य है। तो जो ८ हज़ार नए taxi परमिटों कि रेवड़ी सरकार ने सजायी है उसे लूटने के लिए पहले ही चोरो की फ़ौज तैयार है। बड़े खिलाडी कार्पोरेट की शक्ल में मुंबई की सड़कों पर बिछे नोट बटोरने के लिए गिध्ध दृष्टि लगाये बैठे है। परमिटों की नीलामी में वे ही सबसे आगे होंगे और हर परमिट पे उनका ही कब्ज़ा होगा। बाद में in परमिटों की भी कालाबाजारी होगी और इस कमाई में वे सभी लोग साझीदार होंगे जो इस समय taxi के धंधे में स्थानीयता का तड़का लगा रहे हैं। मजाक तो यह है की सरकार में शामिल तमाम लोग एक लम्बी ख़ामोशी अख्तियार किये बैठे हैं। यद्यपि बाद में मुख्यमंत्री ने ऐसी किसी भी यजन से इंकार किया मगर देर सबेर सरकार अपने आकाओं के लिए taxi परमिट की दुकान खलेगी जरूर इसमें संदेह नहीं है.

Tuesday, January 19, 2010

धोबी का कुत्ता

अंततः मुलायम सिंह यादव ने अमरसिंह का इस्तीफा
स्वीकार कर उन्हें जोर का झटका दे ही दिया । अब तक अमर सिंह यह मानकर चल रहे थे क़ि उनको पार्टी में बनाये रखने के लिए सपा के नेता कुछ नरम हो जायेंगे ,पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । समझा जा सकता है क़ि सपा को देर से ही सही यह समझ तो हुई क़ि अमरसिंह जैसे लोग सपा के लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकते।विशेषकर अमरसिंह जिस तरह क़ि ब्लैक मैलिंग वाली भाष का प्रयोग कर रहे थे वह समझी जा सकने वाली भाषा थी .जो लोग मुलायमसिंह यादव को जानते हैं वे अच्छी तरह बता सकते है क़ि अमर का क्या हश्र होना था.डेल्ही में सीडी अंकल के नाम से मशहूर अमर सिंह ने इस बार सीधे मुलायम के परिवार पे ही निशाना साधा था। उनका कही यह कहना भरी पद गया क़ि रामगोपाल को भी एन डी तिवारी बना दूंगा। ब्लाच्क्मैलिंग के उनके इशारे मुलायम को नाराज़ करने के लिए काफी थे। अमरसिंह ने कभी नहीं सोचा था क़ि जब वे रामगोपाल यादव के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे
तो मुलायम सिंह यादव उनका ठीक उसी तरह साथ नहीं देंगे जिस तरह आज़म खान, राज बब्बर , बेनी वर्मा और मधुकर दिघे के मामले में चुप रहे थे। साथ ही अमरसिंह ने कुच्छ ज्यादा जल्दबाजी करते हुए अपने बगल मित्रों संजय दत्त, जयाप्रदा , मनोज तिवारी जैसे द्रामेवाजों से बयानबाजी करवा कर आग में और घी डाल दिया . इसका असर भी उल्टा हुआ । पार्टी में ९० फीसदी नेता और कार्यकर्ता अमर एंड कंपनी क़ि नौटंकी से भड़क उठे । नेताजी यानि मुलायम को सीधा सन्देश गया क़ि अमरसिंह ने जिस बारात को सपा में गुसाया है वह पार्टी से ज्यादा अमरसिंह क़ि वफादार है। फैसला लेने के लिए मुलायम को और इंतजार क़ि जरुरत नहीं बची थी । सो अमरसिंह का विक्केट गिर गया। अब अमरसिंह कांग्रेस के दरवाजे पे खड़े होते इस से पहले ही सोनिया गाँधी ने न कर दिया। इसके पीछे भी एक कारन है क़ि जब बिना बुलाये अमरसिंह यु पि ये की पार्टी में पहुचे थे तब भी उनको सोनिया ने भाव नहीं दिया था जिसके बाद अमर ने सोनिया को जिस भाष में खरी खोटी सुनायी थी वाही अब उनके लिए नो वीजा इन कांग्रेस का सबब बनी। वैसे भी डेल्ही के सत्ता के गलियारों में दलाल के नाम से मशहूर नेता से कोई भी निकट सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। अब यह जरूर है क़ि अमर सिंह खुद को स्थापित करने के लिए राजनितिक स्तुंत करें पर उन पर गंभीरता से ध्यान देगा कौन । फ्हिल हल तो धोबी के कुत्ते जैसी हालत है । आगे तो भगवन ही जाने.

Sunday, January 17, 2010

ज्योतिबाबू चल दिए

पकड़ काल का हाथ

माकपा के साथ ही

छोड़ा जग का साथ

राजनीति में अब नहीं

मिलते ऐसे लोग

सदा दूर जिनसे रहा

भ्रष्ट्राचार का रोग

जीवन भर करते रहे

अपने कर्म निष्काम

अजय निवेदित कर रहा

तुमको लाल सलाम