वो अमराईयां वो सरसों के खेत ,
वो नदिया किनारे चांदी सी रेत,
वो भौरों का गुंजन वो कोयल का गाना ,
वो द्वारे पे आ के गौ का रम्भाना ,
वो गाँव का पनघट और पीपल की छाँव
बहुत याद आता है अपना वो गाँव। ।
अजय भट्टाचार्य ; साहित्य और पत्रकारिता का जाना पहचाना नाम नवभारत में प्रभारी सम्पादक रह चुके हैं। प्रसिद्द स्तम्भ सरोकार लिखते रहे हैं। विश्व प्रसिद्द पुस्तक सरल गीता लिख चुके हैं। अब ब्लॉग की दुनिया में दस्तक - संपर्क-9869472325
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहली भारत यात्रा को लेकर कूटनीतिक तथा राजनयिक स्तर पर विश्लेषण किये जा रहे हैं और यह पता लगाया जा रहा है कि उनकी यात्रा कितनी सफल रही . दिग्गज अमेरिकी विशेषज्ञों के मुताबिक यह यात्रा भारत-अमेरिकी रिश्तों को एक नए मुकाम पर लेकर जाएगी।
संसद में दिया गया उनका [ओबामा] भाषण वास्तविकता और आदर्शों का बेहतरीन मिश्रण था और उन्होंने सूझबूझ के साथ इस बात को साबित किया कि वह व्यक्तिगत रूप से भारत पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं और अमेरिका के लिए भारत-अमेरिकी रिश्ते बेहद महत्वपूर्ण हैं।शंकाएं गलत साबित हुईं। इतिहासकार इस यात्रा को परिपक्वता और एकजुटता के लिए एक मील के पत्थर के रूप में देखेंगे जिसे राष्ट्रपति ओबामा ने 21वीं सदी की निर्णायक भागीदारी बताया हैं।
एक सरसरी नज़र से देखने पर कहा जा सकता है कि भारत-अमेरिकी रिश्तों को और मजबूत करने की दिशा में ओबामा की यात्रा सफल रही और यह दोनों देशों के संबंधों को नए मुकाम पर लेकर जाएगी।
इस यात्रा ने उनके प्रशासन का भारत के साथ जुडाव के महत्व को स्पष्ट किया जिसमें आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को रेखांकित किया गया। भारत की वैश्विक भूमिका को और बढ़ाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं, जिसमें भारतीय संगठनों पर निर्यात नियंत्रणों में ढील और अप्रसार से जुड़े संगठनों जैसे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह [एनएसजी] में भारत की सदस्यता का समर्थन शामिल है।सबसे महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे को समर्थन। वैसे इस समर्थन को फ़िलहाल प्रतीकात्मक' कहा जा सकता है। क्योंकि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के बारे में समर्थन वास्तविकता से बहुत दूर है। दक्षिण एशियाई मामलों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ स्टीफेन पी.कोहेन का कहना है कि भारत की स्थायी सदस्यता की बात 'प्रतीकात्मक' अधिक है। यह संकेत ही भारतीय मीडिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।उनका मानना है कि संयुक्त राष्ट्र का सुधार एक बहुत बड़ा काम है। 'वूडरो विल्सन सेंटर' के रॉबर्ट हेथवे का कहना है कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का समर्थन करना महत्वपूर्ण तो है, परंतु यह केवल संकेतात्मक है। दूसरी ओर अमेरिकी सांसदों ने भारत को इस संबंध में समर्थन का स्वागत किया है। उनका मानना है कि इस विश्व संस्था में 21वीं सदी की झलक मिलनी चाहिए। भारत विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ओबामा का समर्थन अमेरिका के एक निकट सहयोगी को मजबूती प्रदान करने का प्रयास है। भारत विश्व में दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला राष्ट्र है और यह वैश्विक सुरक्षा की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण देश है। इसे सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देना तर्कपूर्ण है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा अपनी पहली भारत यात्रा में उसे अमेरिका का अपरिहार्य सहयोगी करार दिए जाने के बाद अब उनके पूर्ववर्ती जार्ज डब्ल्यू बुश ने भी स्वीकार किया है कि भारत में अमेरिका के करीबी सहयोगियों में शामिल होने का माद्दा है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश ने अपनी पुस्तक 'डिसीजन प्वाइंट्स' में कहा कि मेरा मानना है कि एक अरब की आबादी और शिक्षित मध्यम वर्ग वाले भारत में अमेरिका का करीबी सहयोगी बनने की संभावना है। भारत- अमेरिका संबंध को नई ऊंचाइयों तक ले जाने वाले और भारत के साथ नागरिक परमाणु समझौते में अहम भूमिका निभाने वाले बुश ने कहा कि यह समझौता विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच रिश्ते बेहतर करने के प्रयासों की परिणति है। परमाणु समझौता एक ऐतिहासिक कदम था क्योंकि इसने वैश्विक स्तर पर भारत की नई भूमिका के संकेत दिए। साथ ही बुश का यह भी मानना है कि इस समझौते से जाहिर तौर पर पाकिस्तान में चिंताएं बढ़ीं।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा से उत्साहित भारत के लिए यह समय अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर गंभीरता से विचार करने का है। इस तरह का समझौता आसियान तथा दक्षिण कोरिया के साथ किया जा चुका है।
व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते के लिए बातचीत पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जिसमें व्यापार, निवेश तथा सेवाएं शामिल हों। हमें इसका उपयोग नीवं के रूप में करना चाहिए। लेकिन, इस तरह के फैसलों के लिए व्यापार बातचीत की जरूरत होगी और ऐसे कदम सोच समझकर उठाए जाने चाहिए। निसंदेह यह सब इस कमरे में आज ही होने से रहा। भारत अमेरिका का व्यापार 2009-10 में 36।6 अरब डालर रहा था। जहा तक ओबामा की कूटनीति का प्रश्न है ,वे सफल रहे हैं। तीव्र आर्थिक मंदी से जूझ रहे अपने देश को रास्ते पे लाना उनकी प्राथमिकता है। इसलिए जब ओबामा अपने देशवासियों के लिए ५० हज़ार नौकरियां जुटाने का दावा करते हैं तब वे निश्चित ही किसी कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नज़र आते हैं।
ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर अपने समर्थन को अंतिम समय तक रहस्य बनाए रखा ८ अक्टूबर को भारतीय संसद को संबोधित करने से खड़े होने से कुछ मिनट पहले तक उन्होंने ने इस मामले में भारत को समर्थन देने की अपनी घोषणा के बारे में गोपनीयता बरकरार रखी थी। ओबामा ने अपने इस कदम को अंतिम समय तक अपने दिल में छिपाए रखा। संसद में उनका संबोधन शुरू होने से कुछ मिनट पहले तक किसी को यह पता नहीं था कि ओबामा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के मामले में अपने समर्थन की घोषणा करने वाले हैं।
लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन को जवाब देने के लिए यह घोषणा की है। इससे पता चलता है कि अमेरिका, भारत के साथ अपने आर्थिक और रक्षा संबंधों को और मजबूती देना चाहता है। हालांकि, यह अभी तक तय नहीं है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता कब तक मिलेगी। न ही पेशकश में यह गारंटी दी गई है कि भारत को सदस्यता मिलेगी ही।
ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए भारत को समर्थन चीन को जवाब देने के लिए किया है। ओबामा का यह कदम चीन को जवाब है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए भारत को समर्थन से राष्ट्रपति ने यह संकेत दे दिया है कि अमेरिका दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच भागीदारी को और ऊंचाई पर ले जाना चाहता है। साथ ही वह भारत के साथ व्यावसायिक रिश्तों को मजबूती देना चाहता है और चीन को जवाब देना चाहता है।
ज़ाहिर है की इस कदम से चीन में नई चिंताएं पैदा हो सकती हैं। यह अमेरिका के उन प्रयासों का भी संकेत है कि चीन की बढ़ती ताकत के बीच अमेरिका एशियाई देशों से अपने गठजोड़ को और मजबूत करना चाहता है।
वैसे भारत को 55 साल पहले 1955 में भी स्थाई सदस्यता की पेशकश की गई थी। उस समय अमेरिका और सोवियत संघ ने भारत को यह पेशकश की थी, पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस पेशकश को ठुकरा दिया था। नेहरू ने कहा था कि भारत के बजाय यह सीट चीन को दे दी जाए।
ओबामा की यह प्रतिबद्धता भारत के नए अंतरराष्ट्रीय दर्जे की दिशा में सिर्फ एक कदम है।
एक बार phir अयोध्या का जिन्न बाहर आ गया है । देश के स्वायंभू kअर्न्धारों अपने अपने तरह से इस विवाद पर मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। अदालत के संभावित फैसले को लेकर कयासों का दौर तेजी से अपना काम कर रहा है। लगता है देश में अयोध्या के सिवा कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं बच है। आलम यह है की आम आदमी सहमा हुआ है। उसे डर है कि कही १९९२ कि पुनरावृत्ति न हो जाए। १९९२ के घाव अभी तक भरे नहीं हैं। जिन लोगों ने अयोध्य के विध्वंश कि साजिश की वे देश की शीर्ष सत्ता तक पहुचने के बाद भी इस विवाद का कोई सकारात्मक हल नहीं निकाल सके। जो लोग खुद को बाबरी मस्जिद का सबसे बड़ा हितैषी बता रहे थे वे भी सत्ता तक पहुँचने के बाद भी इस मसाले पे ज्यादा मुखर होकर कभी सामने नहीं आये। अब जबकि अदालत इस मसले के सन्दर्भ में किसी निर्णायक स्थिति में पहुंची है तो उसे भी फैसला देने से रोके जाने की कोशिशें हो रही हैं। क्या सचमुच अयोध्या मामले का हल अदालतों के माध्यम से निकालने की कोई संभावना है? यह प्रश्न इसलिए जरुरी हो जाता है जब अदालत में पहुंचे दोनों पक्ष अपनी अपनी आस्था के मुद्दे पर टस से मस न होने के लिए राजी नहीं है। इस बीच इस मुद्दे को लेकर विभिन्न प्रचार माध्यम के जरिएaइसा माहौल बनाने के प्रयास भी हो रहे हैं जैसे अयोध्या की सम्बंधित विवादस्पद भूमि पर एक धर्म विशेष का जन्मसिद्ध अधिकार हो। आस्था और यकीन के बीच का यह संघर्ष सहज ही थमने वाला नहीं है।
२६/११ जैसे हमले हिंदुस्तान में फिर न होने की गारंटी देने से पाकिस्तान ने इंकार कर दिया है। उसका कहना है कि जब घरेलु मोर्चे पर ही वह हमले नहीं रोक पा रहा तो मुल्क के बाहर किसी दूसरे मुल्क में हमले न होने की गारंटी कैसे दे सकता है। अमेरिका के गृह मंत्री रोबर्ट्स गेंट्स के साथ मुलाकात के वक़्त पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यह विचार प्रस्तुत किये है। दरअसल पाकिस्तान की यही समस्या है कि आतंक के खिलाफ खुलकर बोलने कि अपेक्षा वह बात को घुमाकर सारी बहस का रुख विपरीत दिशा में मोड़ने का कुचक्र रचता रहा है। इसके लिए या ऐसा करने के पीछे उसकी अपनी मजबूरियां है। पहली मज़बूरी तो यही है कि उसने अपने भस्मासुर खुद तैयार किये है। ये भस्मासुर पाकिस्तान क़ी बेलगाम खुफिया एजेंसी आई एस आई ने कभी भारत के भीतर आतंक मचाने तो कभी अफगानिस्तान में बिरादरों क़ी हिफाजत के लिए अलग अलग नामो और झंडों डंडों के साथ खड़े किये थे। जब तक वे पाकिस्तान और अमेरिका के हितों क़ी रक्षा में व्यस्त थे तब तक न तो पाकिस्तान और न ही अमेरिका को किसी तरह क़ी कोई तकलीफ हुई । लेकिन जब यह भस्मासुर अपने जनक को ही मारने पे आमादा हो गया तब उनका चिंतित होना स्वाभाविक था। २६/११ के बाद से पाकिस्तान में रोजाना कही न कही aआत्मघाती हमले हो रहे हैं। क्या ये हमले भी पाकिस्तान क़ी अपनी ही बेवकूफी का सबब नहीं है .खास बात तो यह है कि अब ये भस्मासुर पाकिस्तानी हुक्मरानों के नियंत्रण से बाहर हो गया है और अपना खुद का शासन स्थापित करना चाहता है। अफगानिस्तान में भी येही हुआ था जब सोवियत सेनाओ से लड़ते लड़ते तालिबान खुद को मुल्क का मालिक समझ बैठा और अपने आकाओ के नियंत्रण से बाहर हो उत्पात मचाने लगा । जाहिर है अब पाकिस्तान किस मुह से कहे कि उसकी जमीं से दीगर मुल्क में गड़बड़ी नहीं कराएगा
बाज़ार के बड़े खिलाडियों की नज़र taxi वालों पर पड़ी और महाराष्ट्र की सरकार ने रास्ता बनाने की कवायद भी शुरू कर दी। सरकार ने फ़रमाया की अब किसी भी taxi का नया licence लेने के लिए सम्बंधित व्यक्ति का मराठी भाषा का ज्ञान और राज्य में कम से कम १५ वर्ष kअ निवासी होना जरुरी होगा। इसके पक्ष में सरकार ने १९६४ के नियमो का हवाला देते हुए कहा कि १९८९ tअक्सी का परमिट लेने के लिए भी यही शर्त थी। अब केवल उस पर कडयी से अमल किया जाएगा। ज़ाहिर है कि इस सरकारी फलसफे के पीछे एक सोची समझी राजनीतिक जोड़ घटा का गणित है। सरकार यह दिखाना चाहती है की उसे मराठी और मराठी भाषा से कितना प्यार है। शायद इसके पीछे कुछ और भी हेतु हो मगर इतना तो साफ़ है कि यह कोई राजनीतिक स्टंट
नहीं है। तो फिर क्या हो सकता है इसे जानने कि जरुरत है। दर असल स्थानीय होने कि शर्त के पीछे के हेतु अलग हैं। मुंबई में करीब ५० हज़ार लोग taxi परमिट धारक हैं। इसके अलावा करीब ८ हज़ार लोग कूल taxi के चालक अथवा मालिक हैं। दो हज़ार लोग निजी taxi के धंधे में व्यस्त हैं। ७४ महिला taxi भी मुंबई में सड़कों पर हैं। सरकार जिस मराठी भाषा कि जानकारी जरुरी होने कि शर्त taxi चालकों व मालिकों पर लाद रही है उसकी सच्चाई यह है कि बमुश्किल १५ फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जो मराठीभाषी हैं और taxi के धंधे से जुड़े है। महाराष्ट्र के परिवहन मंत्री राधाकृष्ण विखेपाटिल के मुताबिक कुछ स्थानीय और कुछ बाहर के आपरेटर्स चाहते हैं कि taxi के धंधे में उतरें। इस लिए सरकार ने नए परमिट के लिए न्यूनतम एक लाख रुपये प्रति परमिट नीलामी मूल्य रखा है। यही वह विन्दु है जहाँ सरकार की नीयत पर शक होता है। ज़रा सोचिये एक लाख का परमिट , दो से तीन लाख की taxi अर्थात कम से कम ४ लाख रुपये हों तभी कोई व्यक्ति taxi खरीदने के बारे में सोचे। ऊपर से राज्य निवासी हिने कि शर्त । सभी जानते है कि सामान्य मेहनत मजदूरी करने वाला वर्ग निवासी प्रमाणपत्र जैसी औपचारिकताएं किस हद तक पूरी कर पायेगा या ऐसी अनिवार्यताएं पूरी करने कि उसकी सामर्थ्य है। तो जो ८ हज़ार नए taxi परमिटों कि रेवड़ी सरकार ने सजायी है उसे लूटने के लिए पहले ही चोरो की फ़ौज तैयार है। बड़े खिलाडी कार्पोरेट की शक्ल में मुंबई की सड़कों पर बिछे नोट बटोरने के लिए गिध्ध दृष्टि लगाये बैठे है। परमिटों की नीलामी में वे ही सबसे आगे होंगे और हर परमिट पे उनका ही कब्ज़ा होगा। बाद में in परमिटों की भी कालाबाजारी होगी और इस कमाई में वे सभी लोग साझीदार होंगे जो इस समय taxi के धंधे में स्थानीयता का तड़का लगा रहे हैं। मजाक तो यह है की सरकार में शामिल तमाम लोग एक लम्बी ख़ामोशी अख्तियार किये बैठे हैं। यद्यपि बाद में मुख्यमंत्री ने ऐसी किसी भी यजन से इंकार किया मगर देर सबेर सरकार अपने आकाओं के लिए taxi परमिट की दुकान खलेगी जरूर इसमें संदेह नहीं है.
ज्योतिबाबू चल दिए
पकड़ काल का हाथ
माकपा के साथ ही
छोड़ा जग का साथ
राजनीति में अब नहीं
मिलते ऐसे लोग
सदा दूर जिनसे रहा
भ्रष्ट्राचार का रोग
जीवन भर करते रहे
अपने कर्म निष्काम
अजय निवेदित कर रहा
तुमको लाल सलाम