Monday, November 1, 2010

अब किस पे करें भरोसा

इसी रविवार को मुंबई स्थित एक चेनल के ऑफिस में गया। एक मित्र का आग्रह था कि ब्यूरो चीफ कि जगह खाली है आ जाओ । अपन भी इलेक्ट्रोनिक मिडिया का कीड़ा शांत करने के इरादे से उधर चले गए। मगर उस दफ्तर में पत्रकारिता का जो वीभत्स रूप मुझे दिखाई दिया वह मेरे लिए एक भयावह अनुभव था । चैनल के एक अफसर को खबर से ज्यादा इस बात में रूचि थी कि कौन सा बिल्डर कहा क्या घपला कर रहा है । साहब ने बाकायदा एक फाइल बना राखी है जिसमे शहर भर में चलनेवाले तमाम निर्माण कार्यों विशेषकर भवन निर्माण कि अच्छी खासी जानकारी जुटा कर रखी हुयी थी। इशारा साफ़ था कि यहाँ खबर का मतलब तोडपानी है । पत्रकारिता से भाई लोगों को कोई लेना देना नहीं था न है। शायद यही कारण रहा होगा कि मेरे एक मित्र वहां एक महिना भी पूरा किये बगैर ही छोड़ दिया है। सवाल यह है कि पत्रकारिता का यह कौन सा तेवर है जिसमे पत्रकार को एक हफ्ताखोर बना कर बाज़ार में उतारा जा रहा है । मेरे पूर्व नियोक्ता भी पत्रकारों को दलाई के धंधे में उतर दिया है। हाँ जब भी आप उनसे मिलोगे तो पत्रकारिता के आदर्शवाद पर पूरा भाषण झड देंगे। लगेगा कि इनसे बड़ा महान पत्रकार कोई नहीं है। लेकिन कथनी और करनी में एकदम विरोधाभास है। यदि आप पत्रकार हैं और स्वाभिमान जैसे रोग से पीड़ित है तो कृपया अपने आदर्शवाद को घर ही छोड़ दें और हाथ में कटोरा ले भीख अर्थात विज्ञापन मांगने का अभ्यास करें वर्ना आज कि पत्रकारिता में आप अप्रासंगिक हो जायेंगे ठीक मेरी तरह। दलाली सीख लो, दुनियाभर के छल कपट को अपना स्वाभाव बना लो, दूसरे की जेब काटने का फन सीख लो । बहरहाल अपन निराश नहीं हैं .निश्चित ही यह स्थिति ज्यादा दिन तक चलने वाली नहीं है। लोग ऐसे पत्रकारों को यथोच्य ढंग से निपटेंगे । लेकिन इस बीमारी का हल अपने पत्रकार समाज को ही खोजना होगा। हमें अपने भीतर झांकना होगा की इस स्थिति के लिए कहीं हम खुद ही तो जिम्मेदार नहीं हैं? आज पत्रकारों में भी दिखावे की जो प्रवृत्ति बढ़ी है वही आज की पत्रकारिता को भ्रष्ट कर रही है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहेंगे ? जिस दिन इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर ढूँढने का प्रयास होगा , पत्रकारिता सुधर जाएगी।

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