Sunday, January 31, 2010

अमर माया मोह

सी डी वाले अंकल की
बदल गयी है भाषा
बहनजी के वंदन अर्चन की
जाग गयी अभिलाषा
बोले गेस्ट हौउस में
हुयी जो मार-पिटाई
पहले दिन से ही हमको
बात पसंद न आई
बातो में जब से दिखा
सपा के प्रति विद्रोह
लगता जैसे हो गया
अमर को माया -मोह !

Friday, January 22, 2010

पाकिस्तानी विलाप

२६/११ जैसे हमले हिंदुस्तान में फिर न होने की गारंटी देने से पाकिस्तान ने इंकार कर दिया है। उसका कहना है कि जब घरेलु मोर्चे पर ही वह हमले नहीं रोक पा रहा तो मुल्क के बाहर किसी दूसरे मुल्क में हमले न होने की गारंटी कैसे दे सकता है। अमेरिका के गृह मंत्री रोबर्ट्स गेंट्स के साथ मुलाकात के वक़्त पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यह विचार प्रस्तुत किये है। दरअसल पाकिस्तान की यही समस्या है कि आतंक के खिलाफ खुलकर बोलने कि अपेक्षा वह बात को घुमाकर सारी बहस का रुख विपरीत दिशा में मोड़ने का कुचक्र रचता रहा है। इसके लिए या ऐसा करने के पीछे उसकी अपनी मजबूरियां है। पहली मज़बूरी तो यही है कि उसने अपने भस्मासुर खुद तैयार किये है। ये भस्मासुर पाकिस्तान क़ी बेलगाम खुफिया एजेंसी आई एस आई ने कभी भारत के भीतर आतंक मचाने तो कभी अफगानिस्तान में बिरादरों क़ी हिफाजत के लिए अलग अलग नामो और झंडों डंडों के साथ खड़े किये थे। जब तक वे पाकिस्तान और अमेरिका के हितों क़ी रक्षा में व्यस्त थे तब तक न तो पाकिस्तान और न ही अमेरिका को किसी तरह क़ी कोई तकलीफ हुई । लेकिन जब यह भस्मासुर अपने जनक को ही मारने पे आमादा हो गया तब उनका चिंतित होना स्वाभाविक था। २६/११ के बाद से पाकिस्तान में रोजाना कही न कही aआत्मघाती हमले हो रहे हैं। क्या ये हमले भी पाकिस्तान क़ी अपनी ही बेवकूफी का सबब नहीं है .खास बात तो यह है कि अब ये भस्मासुर पाकिस्तानी हुक्मरानों के नियंत्रण से बाहर हो गया है और अपना खुद का शासन स्थापित करना चाहता है। अफगानिस्तान में भी येही हुआ था जब सोवियत सेनाओ से लड़ते लड़ते तालिबान खुद को मुल्क का मालिक समझ बैठा और अपने आकाओ के नियंत्रण से बाहर हो उत्पात मचाने लगा । जाहिर है अब पाकिस्तान किस मुह से कहे कि उसकी जमीं से दीगर मुल्क में गड़बड़ी नहीं कराएगा

Thursday, January 21, 2010

एक और दुकान

बाज़ार के बड़े खिलाडियों की नज़र taxi वालों पर पड़ी और महाराष्ट्र की सरकार ने रास्ता बनाने की कवायद भी शुरू कर दी। सरकार ने फ़रमाया की अब किसी भी taxi का नया licence लेने के लिए सम्बंधित व्यक्ति का मराठी भाषा का ज्ञान और राज्य में कम से कम १५ वर्ष kअ निवासी होना जरुरी होगा। इसके पक्ष में सरकार ने १९६४ के नियमो का हवाला देते हुए कहा कि १९८९ tअक्सी का परमिट लेने के लिए भी यही शर्त थी। अब केवल उस पर कडयी से अमल किया जाएगा। ज़ाहिर है कि इस सरकारी फलसफे के पीछे एक सोची समझी राजनीतिक जोड़ घटा का गणित है। सरकार यह दिखाना चाहती है की उसे मराठी और मराठी भाषा से कितना प्यार है। शायद इसके पीछे कुछ और भी हेतु हो मगर इतना तो साफ़ है कि यह कोई राजनीतिक स्टंट

नहीं है। तो फिर क्या हो सकता है इसे जानने कि जरुरत है। दर असल स्थानीय होने कि शर्त के पीछे के हेतु अलग हैं। मुंबई में करीब ५० हज़ार लोग taxi परमिट धारक हैं। इसके अलावा करीब ८ हज़ार लोग कूल taxi के चालक अथवा मालिक हैं। दो हज़ार लोग निजी taxi के धंधे में व्यस्त हैं। ७४ महिला taxi भी मुंबई में सड़कों पर हैं। सरकार जिस मराठी भाषा कि जानकारी जरुरी होने कि शर्त taxi चालकों व मालिकों पर लाद रही है उसकी सच्चाई यह है कि बमुश्किल १५ फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जो मराठीभाषी हैं और taxi के धंधे से जुड़े है। महाराष्ट्र के परिवहन मंत्री राधाकृष्ण विखेपाटिल के मुताबिक कुछ स्थानीय और कुछ बाहर के आपरेटर्स चाहते हैं कि taxi के धंधे में उतरें। इस लिए सरकार ने नए परमिट के लिए न्यूनतम एक लाख रुपये प्रति परमिट नीलामी मूल्य रखा है। यही वह विन्दु है जहाँ सरकार की नीयत पर शक होता है। ज़रा सोचिये एक लाख का परमिट , दो से तीन लाख की taxi अर्थात कम से कम ४ लाख रुपये हों तभी कोई व्यक्ति taxi खरीदने के बारे में सोचे। ऊपर से राज्य निवासी हिने कि शर्त । सभी जानते है कि सामान्य मेहनत मजदूरी करने वाला वर्ग निवासी प्रमाणपत्र जैसी औपचारिकताएं किस हद तक पूरी कर पायेगा या ऐसी अनिवार्यताएं पूरी करने कि उसकी सामर्थ्य है। तो जो ८ हज़ार नए taxi परमिटों कि रेवड़ी सरकार ने सजायी है उसे लूटने के लिए पहले ही चोरो की फ़ौज तैयार है। बड़े खिलाडी कार्पोरेट की शक्ल में मुंबई की सड़कों पर बिछे नोट बटोरने के लिए गिध्ध दृष्टि लगाये बैठे है। परमिटों की नीलामी में वे ही सबसे आगे होंगे और हर परमिट पे उनका ही कब्ज़ा होगा। बाद में in परमिटों की भी कालाबाजारी होगी और इस कमाई में वे सभी लोग साझीदार होंगे जो इस समय taxi के धंधे में स्थानीयता का तड़का लगा रहे हैं। मजाक तो यह है की सरकार में शामिल तमाम लोग एक लम्बी ख़ामोशी अख्तियार किये बैठे हैं। यद्यपि बाद में मुख्यमंत्री ने ऐसी किसी भी यजन से इंकार किया मगर देर सबेर सरकार अपने आकाओं के लिए taxi परमिट की दुकान खलेगी जरूर इसमें संदेह नहीं है.

Tuesday, January 19, 2010

धोबी का कुत्ता

अंततः मुलायम सिंह यादव ने अमरसिंह का इस्तीफा
स्वीकार कर उन्हें जोर का झटका दे ही दिया । अब तक अमर सिंह यह मानकर चल रहे थे क़ि उनको पार्टी में बनाये रखने के लिए सपा के नेता कुछ नरम हो जायेंगे ,पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । समझा जा सकता है क़ि सपा को देर से ही सही यह समझ तो हुई क़ि अमरसिंह जैसे लोग सपा के लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकते।विशेषकर अमरसिंह जिस तरह क़ि ब्लैक मैलिंग वाली भाष का प्रयोग कर रहे थे वह समझी जा सकने वाली भाषा थी .जो लोग मुलायमसिंह यादव को जानते हैं वे अच्छी तरह बता सकते है क़ि अमर का क्या हश्र होना था.डेल्ही में सीडी अंकल के नाम से मशहूर अमर सिंह ने इस बार सीधे मुलायम के परिवार पे ही निशाना साधा था। उनका कही यह कहना भरी पद गया क़ि रामगोपाल को भी एन डी तिवारी बना दूंगा। ब्लाच्क्मैलिंग के उनके इशारे मुलायम को नाराज़ करने के लिए काफी थे। अमरसिंह ने कभी नहीं सोचा था क़ि जब वे रामगोपाल यादव के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे
तो मुलायम सिंह यादव उनका ठीक उसी तरह साथ नहीं देंगे जिस तरह आज़म खान, राज बब्बर , बेनी वर्मा और मधुकर दिघे के मामले में चुप रहे थे। साथ ही अमरसिंह ने कुच्छ ज्यादा जल्दबाजी करते हुए अपने बगल मित्रों संजय दत्त, जयाप्रदा , मनोज तिवारी जैसे द्रामेवाजों से बयानबाजी करवा कर आग में और घी डाल दिया . इसका असर भी उल्टा हुआ । पार्टी में ९० फीसदी नेता और कार्यकर्ता अमर एंड कंपनी क़ि नौटंकी से भड़क उठे । नेताजी यानि मुलायम को सीधा सन्देश गया क़ि अमरसिंह ने जिस बारात को सपा में गुसाया है वह पार्टी से ज्यादा अमरसिंह क़ि वफादार है। फैसला लेने के लिए मुलायम को और इंतजार क़ि जरुरत नहीं बची थी । सो अमरसिंह का विक्केट गिर गया। अब अमरसिंह कांग्रेस के दरवाजे पे खड़े होते इस से पहले ही सोनिया गाँधी ने न कर दिया। इसके पीछे भी एक कारन है क़ि जब बिना बुलाये अमरसिंह यु पि ये की पार्टी में पहुचे थे तब भी उनको सोनिया ने भाव नहीं दिया था जिसके बाद अमर ने सोनिया को जिस भाष में खरी खोटी सुनायी थी वाही अब उनके लिए नो वीजा इन कांग्रेस का सबब बनी। वैसे भी डेल्ही के सत्ता के गलियारों में दलाल के नाम से मशहूर नेता से कोई भी निकट सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। अब यह जरूर है क़ि अमर सिंह खुद को स्थापित करने के लिए राजनितिक स्तुंत करें पर उन पर गंभीरता से ध्यान देगा कौन । फ्हिल हल तो धोबी के कुत्ते जैसी हालत है । आगे तो भगवन ही जाने.

Sunday, January 17, 2010

ज्योतिबाबू चल दिए

पकड़ काल का हाथ

माकपा के साथ ही

छोड़ा जग का साथ

राजनीति में अब नहीं

मिलते ऐसे लोग

सदा दूर जिनसे रहा

भ्रष्ट्राचार का रोग

जीवन भर करते रहे

अपने कर्म निष्काम

अजय निवेदित कर रहा

तुमको लाल सलाम