Tuesday, February 22, 2011

बहुत दिनों पहले

बहुत दिनों पहले
बहुत दिनों बाद
बहुत दिनों पहले
उसने उकेरे थे कुछ अक्षर
पत्थर की शिलाओं पर
कि
बहुत दिनों बाद
जब तुम इन्हें पढोगे
तो जानोगे कि
बहुत दिनों पहले
बहुत दिनों बाद
उसने भी जाना था
कि
वह आदमी है
बन्दर से भिन्न !

Thursday, February 17, 2011

नीले पीले बैंगनी हारे बसंती लाल।
हर रंग में हैं रंगे हर गोरी के गाल॥
नस नस में हो सनसनी अंग अंग में आग ।
पवन करे अठखेलियाँ समझो आया फाग ॥
यादें हमको ले चलीं फिर से वही खदेड़ ।
ककैया ईटों की गली मौलसिरी का पेड़॥
दिशा सिन्दूरी हो गयी मोर पंखिया शाम ।
मन के पंछी को नहीं फिर भी कहीं विराम॥
चन्द्रवदन शुक नासिका भौहें मदन कमान।
कंचुकि पट घट अमिय के कटी तट सिंह सामान ॥
मान सुहागिन बात हमारी जीवन का आधार बदल दे
राणा शिवा से बेटे जनकर संतति का सब सार बदल दे
आगे बढ़ छाती पर चढ़कर तलवारों की धार बदल दे
नारी तू ही परिवर्तन कर शैया और श्रंगार बदल दे
बाँध पती के कर में राखी सावन का त्यौहार बदल दे । ।

Wednesday, February 9, 2011

कश्मीरियों से प्यारराम जन्मभूमि से नाकार
देवबंद दारूल उलूम मदरसा कम है, भारतीय मुसलमानों की गतिविधियों का ठेकेदार अधिक है। मदरसे का काम प़ढाना लिखाना होता है, लेकिन देवबंद का काम मुसलमानों के लिए राजनीति करना है। समयसमय पर वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भागीदारी की याद दिलाता रहता है। जिसका एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि उसने आजादी के समय भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व किया है, इसलिए हिन्दुस्तान के हर मसले पर बोलने और उसके लिये सरकार और हिन्दू समाज को फटकारते रहने का उसे पूर्ण अधिकार है। फतवा शब्द सुनाई प़डते ही देवबंद की याद आ जाती है। भारत में बरेलवी मतावलम्बियों की संख्या ७८ प्रतिशत बतलाई जाती है, जबकि देवबंदी विचारधारा के अनुयाई केवल २८ प्रतिशत हैं। इस बार देवबंद ने कश्मीर के मामले में एक सम्मेलन बुलाया, जिसकी सर्वत्र चर्चा है। इस मसले पर ११ सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया। इन प्रस्तावों में जम्मूकश्मीर की आबादी के साथसाथ हर तरह से सहानुभूति व्यक्त करते हुए उससे स्वयं का भविष्य भारत में ही देखने की अपील की गई है, लेकिन भारत सरकार को सीख देते हुए कहा कि वह केवल कश्मीर से ही लगाव न रखे, बल्कि कश्मीरियों की भी समस्याआें और मांगों पर विचार करे। सम्मेलन के अंत में यह भी तय किया गया है कि देवबंद की एक टीम कश्मीर की यात्रा पर जाए और वहां के नागरिकों से सीधी बातचीत करे। कश्मीर के मुसलमानों को शेष भारत से बहुत सारी शिकायतें हैं। देवबंद ने इस बात को क्यों स्वीकार नहीं किया कि उसने आज तक जम्मूकश्मीर के हिन्दू पंडितों के संबंध में एक शब्द भी नहीं बोला। यदि भारत के बहुसंख्यक हिन्दू भारत के मुसलमानों के लिये अपना स्वर बुलंद करते रहते हैं, तो फिर क्या यहां के मुसलमानों का यह दायित्व नहीं है कि जो कश्मीरी पंडित भारत में निर्वासित जीवन भोग रहे हैं, वे भी उनकी सहानुभूति में कुछ कहें। देवबंद कश्मीरी मुसलमानों के बारे में तो अपनी चिंता जतलाता है, लेकिन उन हिन्दू कश्मीरियों के बारे में एक शब्द नहीं बोलता है, जो वहां के मूल निवासी हैं। कश्मीर के बारे में देवबंद भले ही अपनी चिंता बतलाए, लेकिन वहां के अल्पसंख्यकों पर उसने कोई चिंता नहीं बतलाई है। यदि देवबंद भारत में अल्पसंख्यक मुस्लिमों की समस्या उठाता है, तो कश्मीर के हिन्दू अल्पसंख्यकों के लिए कोई प्रस्ताव परित क्यों नहीं करता है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि देवबंद को मुसलमानों की चिंता है, हिन्दुआें की नहीं। इस प्रस्ताव में संविधान की धारा ३७० को हटाने की बात नहीं कही गई है। कश्मीर के मुस्लिम और देवबंद के समर्थक उनकी बेकारी पर आंसू बहाते हैं, लेकिन यह बात क्यों नहीं कहते कि धारा ३७० को हटा कर भारत के उद्योगपतियों को जम्मूकश्मीर में जाकर उद्योग स्थापित करने दो ताकि बेकारी का मसला ही समाप्त हो जाए। देवबंद के संचालकों ने इस सम्मेलन में मुस्लिम आतंकवाद की चर्चा क्यों नहीं की ? उन्होंने पाकिस्तान को क्यों नहीं फटकारा कि वह कश्मीर में घुसपैठ बंद कर दे और भारत के साथ जो कश्मीर का विलय हुआ है, उसे स्वीकार कर अलगाववाद को हमेशा के लिए समाप्त कर दे।
देवबंद का जो समर्थन कश्मीर में अलगाववादी मुसलमानों के लिए हैं, लगभग वैसा ही समर्थन राम जन्मभूमि के मामले में भारत के कट्‌टरवादी मुसलमानों के साथ है। देवबंद तो एक धार्मिक संस्था है, इसलिए वह बाबरी मस्जिद के लिए केस ल़डने वाले मुसलमानों से यह क्यों नहीं कहती कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने जो निर्णय दिया है, उसे स्वीकार कर भारत में मेल मिलाप का वातावरण तैयार करे। अयोध्या में जो विवादित मामला है, वह तो वास्तव में दो धमा] के बीच में है। इसलिए धार्मिक संस्था होने के नाते वह इस मामले का नेतृत्व क्यों नहीं करती है? देवबंद की जब बात सुनी जाती है और वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मुसलमानों पर अपना गहरा प्रभाव रखता है, तब तो उसे तुरंत इस मामले को निपटाने का प्रयास करना चाहिए। सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी धार्मिक स्वरूप के संगठन है, इसलिए धर्म के मामले में अपना अधिकार और प्रभाव धराने वाला देवबंद मदरसा यह काम अवश्य ही कर सकता है।
बाबरी मस्जिद के संबंध में बाहर के लोगों के बीच ही नहीं, बल्कि स्वयं मुस्लिमों में इस बात पर विवाद है कि वहां कोई मस्जिद थी ? अनेक एतिहासिक दस्तावेज यह साबित करते हैं कि बाबर अयोध्या आया ही नहीं, वह तो आगरा से ही दिल्ली वापस लौट गया था। क्योंकि बाबर को आगरा में जानकारी मिली कि उसकी बहन गुलबदन फरागान से (उज्बेकिस्तान) उसे मिलने के लिए भारत आ रही है। उक्त समाचार मिलते ही बाबर आगरा से दिल्ली लौट गया और फिर लाहौर में अपनी बहन का स्वागत करने के लिये वहां पहुंच गया । भाई और बहन का तो मिलाप हो गया, लेकिन बाबर का बेटा हुमायूं बीमार हो गया । बाबर ने अपने बेटे के लिये दुआएं मांगी और ईश्वर से कहा कि वह हुमायूं के बदले उसकी जान ले ले। निधन के पश्चात बाबर का शव लेकर उसकी बहन लौट जाती है । कुछ इतिहासकारों का मत है कि इस मस्जिद को जिसे वे जन्मस्थान मस्जिद कहते थे, उसे मीर बाकी ने बनाया था । मीर बाक़ी एक साधारण सैनिक था, जो अयोध्या में रहा करता था। उसके पास कुछ पैसे थे, जिससे उसने जन्मस्थान मस्जिद बना दी । उसे जब पता लगा कि बाबर आने वाला है, तो उसने प्रयास किया कि वह उक्त मस्जिद का उद्‌घाटन बाबर के हाथों करवाए । लेकिन बाबर तो आया नहीं, फिर इसका नाम बाबरी कैसे प़ड गया ? मीर बाक़ी शिया था, उसने एक सुन्नी शासक के हाथों मस्जिद का शुभारम्भ करवाना क्यों ठीक समझा ? अकबर के कार्यकाल में इस स्थान पर जौधा बाई के अनेक बार आने और सरयू में स्नान करने की जानकारी सवाई मानसिंह की डायरी में उपलब्ध है । कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के अधिकांश तथ्यों को लखनऊ गज़ेटियर के आधार पर स्वीकार किया है । यदि अन्य बातों को भी न्यायालय ने इस पृष्ठभूमि में स्वीकार किया होता तो बहुत सारी सच्चाइयों को सामने लाया जा सकता था ।
मस्जिद का वहां होना स्वीकार कर भी लिया जाए, तब यह सवाल उठता है कि देवबंद के मौलानाआें को पहले यह सिद्घ करना प़डेगा कि उक्त ढांचे को क्या मस्जिद कहा जा सकता है ? पुरातत्व की खुदाई में मंदिर के चिह्न तो दिखलाई प़डते हैं, लेकिन मस्जिद के नहीं । इसलिए जिसे मस्जिद कहा जा रहा है, वास्तव में क्या वह मस्जिद थी ? मस्जिद के लिये शरीयत में कुछ नियम हैं ? क्या इन नियमों के आधार पर किसी मंदिर को मस्जिद मान लेना इस्लामी कसौटी पर खरा है ? इस्लामी विद्‌वानों का तो यह कहना है कि अब जहां मस्जिद के चिह्न ही नहीं है, उसे मस्जिद कहकर ल़डना इस्लामी नियमों के विरुद्ध है। यदि कुछ भी मस्जिद के लक्षण होते और उसके लिए संघर्ष किया जाता तो वह उचित था, लेकिन अब तो मस्जिद के नाम पर जो हत्या की जा रही है, उसे इस्लाम कभी जायज नहीं ठहरा सकता है। इसलिए देवबंद जो एक धार्मिक मदरसा है, वह इस बात को कह सकता है कि जब मस्जिद के आसार ही नहीं है, तो वहां मस्जिद कहकर हिंसा करना और मस्जिद के नाम पर इंसानों के खून से हाथ रंगना कभी उचित नहीं कहा जा सकता है। मस्जिद के लिए स्थान का खरीदा जाना अनिवार्य होता है। यदि कोई जमीन दान में देता है, तो उसके भी दस्तावेजों की पुष्टि करना अनिवार्य होता है। मस्जिद न तो लूट के स्थान पर और न ही अवैध प्रकार से हथियाई गई जगह पर निर्मित हो सकती है। बाबरी मस्जिद होने का दावा करने वालों ने अब तक इसका कोई सबूत नहीं दिया है कि यदि वहां मस्जिद उन्होंने बनाई है, तो वह जगह कहां से आई, किसने दी और किसकी मिल्कियत थी? जबकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि सम्पूर्ण अयोध्या तो राजा दशरथ की राजधानी थी। इतना ही नहीं, भगवान राम के साथ सम्पूर्ण अवध का नाम ज़ुडा हुआ है। इसलिए वहां राम की जन्मभूमि पर मंदिर होने के संबंध में विवाद होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो हर बार यह सवाल क्यों ख़डा होता ? १७५१ में अवध के द्वितीय नवाब सफदर जंग ने गंगा जमुना से ज़ुडे दो आब के मैदान में पठानों के हमलों का सामना करने के लिए मराठा सेना को आमंत्रित किया। मराठा सेना प्रसिद्ध सर सेनापति मल्हार राव होल्कर के नेतृत्व में पहुंची, जहां पठानों के दांत खट्‌टें कर दिये। नवाब सफदर जंग को विजय दिला कर मराठाआें ने यह सिद्ध कर दिया कि हमारी ताकत का लोहा अब सारा हिन्दुस्तान मानता है। मराठाआें ने इस सहायता के बदले नवाब से मांग की कि उन्हें उनके पवित्र स्थान अयोध्या, काशी और प्रयाग जो उनकी सीमा में हैं, उन्हें लौटा दिये जाएं। १७५६ में नवाब शुजाउद्दोला ने उत्पाती पठानों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए फिर से सहायता मांगी। मराठा सेना ने उन पठानों को फिर से पराजीत कर दिया। मराठा सरदारों ने फिर से अपनी पिछली मांग को दोहराया और फिर से कहा कि उनके राज्य में जो हिन्दुआें के तीन पवित्र तीर्थ स्थल अयोध्या, काशी और प्रयाग हैं, अपनी इस सहायता और सैनिक कार्यवाही द्वारा मिली जीत के बदले उन्हें सौंप दिये जाएं। शुजाउद्‌दोला ने फिर से इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई, लेकिन मराठा सेना पंजाब की विजय के लिये चल प़डी। जो परिणामस्वरूप पानीपत के तीसरे युद्ध का कारण बनी और १७६१ में मराठा पराजीत हो गए। पंजाब की ओर कूच करने से पूर्व यह तीनों हिन्दू तीथा] को मराठाआें ने अपने हस्तगत कर लिया होता तो आज यह नौबत नहीं आती। बाबरी का जप करने वाले मुस्लिम बंधु यदि इतिहास की इन घटनाआें पर भी एक बार विचार कर लेंगे तो भविष्य में उन्हें लज्जित नहीं होना प़डेगा।

ख़बरों के दलाल

हाल के दिनों में 'पेड' न्‍यूज' का चलन तेजी से बढ़ रहा है
मुंबई में फिर से महानगर नगरपालिका (मनपा) चुनाव आ रहे हैं। चुनाव मतलब मीडिया के लिए कमाई का सुनहरा मौका। अब पत्रकार किसी नेता से पैसे लेकर उसकी अच्छी खबर छापेंगे या फिर किसी का स्टिंग ऑपरेशन कर उसे ब्लैकमेल करेंगे। पिछले चुनाव ने यह साबित कर दिया कि मीडिया अब सिर्फ और सिर्फ मंडी बनकर रह गया है। मंडी, मतलब बिकने का बाजार। जहां खबरें बेची जाती हैं और पत्रकार खबरे बेचनेवाले दलाल। इसे खरीदते हैं चुनाव ल़डने वाले राजनेता। आज की पत्रकारिता का यही एक समूचा परिदृश्य है। ऐसे हालात के बावजूद जिनको आज की पत्रकारिता वेश्यावृत्ति नहीं लगती, उनसे अपना करबद्ध आग्रह है कि इस पूरे नजारे को अब आप जरा सीधे और सपाट अपने तरीके से समझ लीजिए। कइयों को यह सपाट तरीका कांटे की तरह बहुत चुभेगा लेकिन सच तो सच होता है।इस जमाने में जागरूक पत्रकार बहुत कम है। जागरूक पत्रकारों का मतलब नेताओं की पार्टी में देर रात तक जागकर मांस और मदिरा के साथ शबाब के मजे उड़ाना नहीं है। आज की पत्रकारिता भी मात्र सनसनीखेज खबर को ही बढ़ावा देती है। क्या घटना घटी, अब क्या हो रहा है, वह लाइव टीवी चैनेलों पर देखने को मिल जायेगा। आगे क्या होनेवाला है, ये भी खबरे सनसनी पैदा करेंगी। किन्तु, समाज में क्या होना चाहिए, ये कोई भी मीडिया नहीं बताता क्योंकि समाज का आइना और लोकशाही का चौथा स्तंभ माने जानेवाले इस मीडिया जगत का अब पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है।मौजूदा हालात देखते हुए ऐसा लग रहा है कि मीडिया बिक चुका है और अब उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है। यह सुनना बहुतों को शायद बहुत बुरा भी लगे। मगर, यह सच है कि मीडिया एक वेश्या व्यवसाय की तरह बन गया है। कई पत्रकार यह भी पूछेंगे कि लिखनेवाला कैसे वैसे पेशे में आ गया है, जिसको वेश्यावृत्ति का नाम दिया जा रहा है। लेकिन पाठक खुद ही तय करें कि जो सरे बाजार बिकता हो, डंके की चोट पर बिकता हो, तो उसे क्या कहा जाए। शास्त्रों तक में उदाहरण है कि गणिकाएं खरीदे जाने के बावजूद किसी की कभी नहीं हुई। अब पत्रकारिता में भी जब ऐसा ही हो रहा है, तो इसे वेश्यावृत्ति नहीं, तो और क्या कहा जाए! पूजा पाठ या सत्संग? जिनको मीडिया मिशन लगता हो, उनको सलाह है कि वे अपना ज्ञान जरा दुरुस्त कर लें।पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति कहने पर साथियों को बुरा इसीलिए लगेगा कि वे मीडिया में आए तो थे पत्रकारिता करने, और करनी पड़ रही है वेश्यागिरी। हमको अपने किए का आकलन लगातार करते रहना चाहिए। तभी पता चलता है कि हमसे हो क्या रहा है। जिधर जा रहे हैं, वह दिशा सही है कि नहीं। अगर गलत है, तो रास्ता बदलने में काहे की शरम भाई!वरीष्ठ पत्रकार राममनोहर त्रिपाठी तो इस दुनिया में नहीं रहे, मगर वे कहा करते थे कि पत्रकारिता एक समाजसेवा है। इससे कमाई की अपेक्षा न करें। जिन्हें रूपया कमाना हो, वे मेहरबानी कर के दूसरा पेशा अपनाएं। किन्तु, आज की पीत पत्रकारिता ने समूचे मीडिया समाज को बदनाम कर दिया है। कुछ छुटभैये पत्रकार अपना साप्ताहिक अखबार निकालकर पीत पत्रकारिता में जुट जाते हैं और चालू कर देते हैं दलाली और भ्रष्ट्राचार की दुकानदारी। कई पत्रकार तो मटके और जुओं के अड्डों पर खुलेआम हफ्ता मांगते हुए नजर आते हैं।कुछ हद तक पत्रकारों की इस अवस्था के लिए अखबार मालिक भी जिम्मेदार हैं। पत्रकारों को तनख्वाह तो दे नहीं पाते और चले अखबार का प्रकाशन करने। पत्रकारों की मजबूरी का फायदा उठाकर उनको हाशिये पर रखना चाहते हैं। कई जगह पर समय पर वेतन नहीं मिल पाता, जबकि कई गरीब जागरूक पत्रकारों का परिवार इसी वेतन पर निर्भर होता है। सरकार को चाहिए कि ऐसे अखबारों का प्रकाशन बंद करवा दे या पत्रकार संगठनों के माध्यम से उनके खिलाफ उचित कदम उठाया जाए ताकि अखबार मालिक पत्रकारों को समय पर वेतन दें। साथ ही, दलाली पर रोक लगाने के लिए पत्रकारों का अधिकृत पंजीयन भी होना जरूरी है।लोकतंत्र में अपने आप को चौथा खंभा कहनेवाले मीडिया ने कमाई की कोशिश में समाज के प्रति अपनी वास्तविक जिम्मेदारी को पूरी तरह भुला दिया है और अपनी असली भूमिका से बहुत दूर जा चुका है। पिछले दिनों प्रेस दिवस पर चेन्नई में ‘भारतीय मीडिया का बदलता चेहरा’ सेमिनार में भी जस्टिस रे यही भाषा बोले। वहां तो उन्होंने यह तक कहा कि संपादक अब सिर्फ दो कौ़डी की चीज रह गया है और खबरें कॉमोडिटी यानी सामान हैं, जिसको खरीदा जा सकता है। मीडिया में पैसे देकर अपनी बात कहने के लिए भ्रामक प्रस्तुतिकरण का सहारा लिया जा सकता है।अखबारों में आप जो प़ढते हैं, वह खबर है या पैसे लेकर छापा हुआ विज्ञापन, यह पता भी नहीं चले। यह तो, एक तरह का छल ही हुआ ना भाई। अपनी भाषा में कहें, तो जिसे आप अखबार में प़ढ या टीवी पर देख रहे हैं, वह खबर है या विज्ञापन, यह आपको पता होना चाहिए। लेकिन, यहां तो मालिकों को पैसे देकर कुछ भी छपवा लीजिए। यह ठीक वैसा ही है, जैसे अपनी किसी छोकरी को कोठे की मालकिन दुनिया के सामने खरीदार की बीवी के रूप में पेश करे।
अच्छे और खूबसूरत लगने वाले शब्दों में कह सकते हैं कि ग्लोबलाइजेशन के बाद हमारा मीडिया भी इंटरनेशनल मीडिया की तरह आज पूरी तरह से बाजारवाद का हिस्सा बन गया है। मीडिया का आज पूरी तरह से कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है और मार्केट उस पर हावी हो गया है। लेकिन, यह भाषा किसको समझ में आती है? इसलिए सीधी भाषा में सिर्फ और सिर्फ यही कह सकते हैं कि मीडिया अब मंडी बन गया है। फिर, मंडी वेश्या की हो या खबरों की, क्या फर्क प़डता है! मंडी सिर्फ मंडी होती है, जहां कोई खरीदता है, तो कोई बिकता है। इस मंडी में खबरें बिकती हैं। कोई भी खरीद सकता है। इसलिए, आज की पत्रकारिता सिर्फ दलाली है। और, अगर इस सच को आप नहीं मानते, तो बताइए कि इसे क्या कहा जाए?

Monday, February 7, 2011

बासंती मौसम ने डाल दिए डेरे
खेत कही विरल विरल कही हैं घनेरे !!
मधु से छलके मधुप्याले
कुदरत ने हैं भर डाले
भौरे काले काले
गुण गुण कर करते हैं कलियों के फेरे
बासंती ...............

Wednesday, February 2, 2011

कौड़ी कौड़ी मोहताजी के असल किरदार है हम
मगर सब्र और अना(स्वाभिमान) में खुद्दार है हम.

पत्थरदिल थे मोम के घर में

और पत्थरदिल मोम से निकले

ऐसी आग लगी थी यारो

पत्थर गल गए मोम न पिघले