Tuesday, September 28, 2010
हे अयोध्या !
Sunday, September 26, 2010
एक बार phir अयोध्या का जिन्न बाहर आ गया है । देश के स्वायंभू kअर्न्धारों अपने अपने तरह से इस विवाद पर मोर्चेबंदी शुरू कर दी है। अदालत के संभावित फैसले को लेकर कयासों का दौर तेजी से अपना काम कर रहा है। लगता है देश में अयोध्या के सिवा कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं बच है। आलम यह है की आम आदमी सहमा हुआ है। उसे डर है कि कही १९९२ कि पुनरावृत्ति न हो जाए। १९९२ के घाव अभी तक भरे नहीं हैं। जिन लोगों ने अयोध्य के विध्वंश कि साजिश की वे देश की शीर्ष सत्ता तक पहुचने के बाद भी इस विवाद का कोई सकारात्मक हल नहीं निकाल सके। जो लोग खुद को बाबरी मस्जिद का सबसे बड़ा हितैषी बता रहे थे वे भी सत्ता तक पहुँचने के बाद भी इस मसाले पे ज्यादा मुखर होकर कभी सामने नहीं आये। अब जबकि अदालत इस मसले के सन्दर्भ में किसी निर्णायक स्थिति में पहुंची है तो उसे भी फैसला देने से रोके जाने की कोशिशें हो रही हैं। क्या सचमुच अयोध्या मामले का हल अदालतों के माध्यम से निकालने की कोई संभावना है? यह प्रश्न इसलिए जरुरी हो जाता है जब अदालत में पहुंचे दोनों पक्ष अपनी अपनी आस्था के मुद्दे पर टस से मस न होने के लिए राजी नहीं है। इस बीच इस मुद्दे को लेकर विभिन्न प्रचार माध्यम के जरिएaइसा माहौल बनाने के प्रयास भी हो रहे हैं जैसे अयोध्या की सम्बंधित विवादस्पद भूमि पर एक धर्म विशेष का जन्मसिद्ध अधिकार हो। आस्था और यकीन के बीच का यह संघर्ष सहज ही थमने वाला नहीं है।