Sunday, October 3, 2010

मोदी और बिहार

बिहार में चुनावी बिगुल बज चूका है। भारतीय जनता पार्टी के प्रचारकों की सूचि में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम नहीं है। कहा जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार नहीं चाहते कि मोदी बिहार आयें। कारण समझा जा सकता है। देश को जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय, क्षेत्र, संस्कृति और विश्वास कि संकीर्णताओं से मुक्त रखने और राजनीति में इनके प्रयोग से दूर रहने वालों के कथन और आचरण का अन्तर स्पष्ट देख जा सकता है। मोदी की तरह ही भाजपा के एक और तेज तर्रार युवा नेता वरुण गाँधी भी भाजपा प्रचारकों की सूची से गायब हैं। नितीश बाबु को लगता है कि यदि भाजपा के ये दो रत्न चुनाव प्रचार से दूर रहे तो मुस्लमान मत नहीं बिखरेंगे और उनकी पार्टी जद यु को ही मुसलमानों के मत मिलेंगे। यह जातीयवादी राजनीति नहीं तो और क्या है। सवाल यह है कि जब मोदी मान्य नहीं तो उनकी पार्टी इतनी प्रिय क्यों। दरअसल यह गठबंधन की बजाय मजबूरी की राज नीति है। इसे ही अवसरवाद और दुसरे शब्दों में कहें तो तुष्टिकरण की राजनीति कहा जा सकता है। गुड खाकर गुलगुले से परहेज की राजनीति है यह। इसे सिद्धांतो की राजनीति कतई नहीं कहा जा सकता। वैसे भी भारत की वर्तमान राजनीति में सिद्धांत जैसे शब्द कालबाह्य से हो गए हैं । यह एक राजनैतिक ह्रास और बिडम्बना का विषय हो सकता है। वरुण गाँधी अपनी फायरब्रांड वाक्शैली के लिए कुख्यात/विख्यात हैं। भाजपा अच्छी तरह जानती है किआने वाला कल युवाओं का है। युवा मन भावुक होता है। वह होश की बजाय जोश से कम लेता है। इसलिए वरुण भले नितीश के लिए दायित्व हों भाजपा के लिए तो संपत्ति ही रहेंगे। मोदी तो भविष्य की भाजपा के ब्रांड अम्बेस्डोर हैं। इसलिए नितीश के चाहने और न चाहने का भाजपा पर कोई असर नहीं पड़ने वाला लेकिन भाजपा के साथ खड़े होकर नितीश अपने ही हमाम में वस्त्रविहीन नज़र आते हैं।

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