Tuesday, November 16, 2010


गया वसंत गयी हरियाली छोड़ गया उपवन को माली
खली वृक्ष खड़े हैं यहाँ अब अपने हाथ पसारे...
फिर मचल उठे दो धारे...
इन्द्र धनुष की छवि से सुंदर , आँखे जैसे नील समुंदर
मन मंदिर में बसी मूर्ति को , अर्पित गीत हमारे ....
फिर मचल उठे दो धारे..

Tuesday, November 9, 2010

ओबामा की यात्रा के मायने

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहली भारत यात्रा को लेकर कूटनीतिक तथा राजनयिक स्तर पर विश्लेषण किये जा रहे हैं और यह पता लगाया जा रहा है कि उनकी यात्रा कितनी सफल रही . दिग्गज अमेरिकी विशेषज्ञों के मुताबिक यह यात्रा भारत-अमेरिकी रिश्तों को एक नए मुकाम पर लेकर जाएगी।

संसद में दिया गया उनका [ओबामा] भाषण वास्तविकता और आदर्शों का बेहतरीन मिश्रण था और उन्होंने सूझबूझ के साथ इस बात को साबित किया कि वह व्यक्तिगत रूप से भारत पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं और अमेरिका के लिए भारत-अमेरिकी रिश्ते बेहद महत्वपूर्ण हैं।

शंकाएं गलत साबित हुईं। इतिहासकार इस यात्रा को परिपक्वता और एकजुटता के लिए एक मील के पत्थर के रूप में देखेंगे जिसे राष्ट्रपति ओबामा ने 21वीं सदी की निर्णायक भागीदारी बताया हैं।

एक सरसरी नज़र से देखने पर कहा जा सकता है कि भारत-अमेरिकी रिश्तों को और मजबूत करने की दिशा में ओबामा की यात्रा सफल रही और यह दोनों देशों के संबंधों को नए मुकाम पर लेकर जाएगी।

इस यात्रा ने उनके प्रशासन का भारत के साथ जुडाव के महत्व को स्पष्ट किया जिसमें आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को रेखांकित किया गया। भारत की वैश्विक भूमिका को और बढ़ाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं, जिसमें भारतीय संगठनों पर निर्यात नियंत्रणों में ढील और अप्रसार से जुड़े संगठनों जैसे परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह [एनएसजी] में भारत की सदस्यता का समर्थन शामिल है।सबसे महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के दावे को समर्थन। वैसे इस समर्थन को फ़िलहाल प्रतीकात्मक' कहा जा सकता है। क्योंकि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के बारे में समर्थन वास्तविकता से बहुत दूर है। दक्षिण एशियाई मामलों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ स्टीफेन पी.कोहेन का कहना है कि भारत की स्थायी सदस्यता की बात 'प्रतीकात्मक' अधिक है। यह संकेत ही भारतीय मीडिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।उनका मानना है कि संयुक्त राष्ट्र का सुधार एक बहुत बड़ा काम है। 'वूडरो विल्सन सेंटर' के रॉबर्ट हेथवे का कहना है कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का समर्थन करना महत्वपूर्ण तो है, परंतु यह केवल संकेतात्मक है। दूसरी ओर अमेरिकी सांसदों ने भारत को इस संबंध में समर्थन का स्वागत किया है। उनका मानना है कि इस विश्व संस्था में 21वीं सदी की झलक मिलनी चाहिए। भारत विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ओबामा का समर्थन अमेरिका के एक निकट सहयोगी को मजबूती प्रदान करने का प्रयास है। भारत विश्व में दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला राष्ट्र है और यह वैश्विक सुरक्षा की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण देश है। इसे सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता देना तर्कपूर्ण है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा अपनी पहली भारत यात्रा में उसे अमेरिका का अपरिहार्य सहयोगी करार दिए जाने के बाद अब उनके पूर्ववर्ती जार्ज डब्ल्यू बुश ने भी स्वीकार किया है कि भारत में अमेरिका के करीबी सहयोगियों में शामिल होने का माद्दा है. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश ने अपनी पुस्तक 'डिसीजन प्वाइंट्स' में कहा कि मेरा मानना है कि एक अरब की आबादी और शिक्षित मध्यम वर्ग वाले भारत में अमेरिका का करीबी सहयोगी बनने की संभावना है। भारत- अमेरिका संबंध को नई ऊंचाइयों तक ले जाने वाले और भारत के साथ नागरिक परमाणु समझौते में अहम भूमिका निभाने वाले बुश ने कहा कि यह समझौता विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच रिश्ते बेहतर करने के प्रयासों की परिणति है। परमाणु समझौता एक ऐतिहासिक कदम था क्योंकि इसने वैश्विक स्तर पर भारत की नई भूमिका के संकेत दिए। साथ ही बुश का यह भी मानना है कि इस समझौते से जाहिर तौर पर पाकिस्तान में चिंताएं बढ़ीं।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा से उत्साहित भारत के लिए यह समय अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर गंभीरता से विचार करने का है। इस तरह का समझौता आसियान तथा दक्षिण कोरिया के साथ किया जा चुका है।
व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते के लिए बातचीत पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जिसमें व्यापार, निवेश तथा सेवाएं शामिल हों। हमें इसका उपयोग नीवं के रूप में करना चाहिए। लेकिन, इस तरह के फैसलों के लिए व्यापार बातचीत की जरूरत होगी और ऐसे कदम सोच समझकर उठाए जाने चाहिए। निसंदेह यह सब इस कमरे में आज ही होने से रहा। भारत अमेरिका का व्यापार 2009-10 में 36।6 अरब डालर रहा था। जहा तक ओबामा की कूटनीति का प्रश्न है ,वे सफल रहे हैं। तीव्र आर्थिक मंदी से जूझ रहे अपने देश को रास्ते पे लाना उनकी प्राथमिकता है। इसलिए जब ओबामा अपने देशवासियों के लिए ५० हज़ार नौकरियां जुटाने का दावा करते हैं तब वे निश्चित ही किसी कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नज़र आते हैं।

ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर अपने समर्थन को अंतिम समय तक रहस्य बनाए रखा ८ अक्टूबर को भारतीय संसद को संबोधित करने से खड़े होने से कुछ मिनट पहले तक उन्होंने ने इस मामले में भारत को समर्थन देने की अपनी घोषणा के बारे में गोपनीयता बरकरार रखी थी। ओबामा ने अपने इस कदम को अंतिम समय तक अपने दिल में छिपाए रखा। संसद में उनका संबोधन शुरू होने से कुछ मिनट पहले तक किसी को यह पता नहीं था कि ओबामा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के मामले में अपने समर्थन की घोषणा करने वाले हैं।
लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन को जवाब देने के लिए यह घोषणा की है। इससे पता चलता है कि अमेरिका, भारत के साथ अपने आर्थिक और रक्षा संबंधों को और मजबूती देना चाहता है। हालांकि, यह अभी तक तय नहीं है कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता कब तक मिलेगी। न ही पेशकश में यह गारंटी दी गई है कि भारत को सदस्यता मिलेगी ही।
ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए भारत को समर्थन चीन को जवाब देने के लिए किया है। ओबामा का यह कदम चीन को जवाब है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए भारत को समर्थन से राष्ट्रपति ने यह संकेत दे दिया है कि अमेरिका दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच भागीदारी को और ऊंचाई पर ले जाना चाहता है। साथ ही वह भारत के साथ व्यावसायिक रिश्तों को मजबूती देना चाहता है और चीन को जवाब देना चाहता है।
ज़ाहिर है की इस कदम से चीन में नई चिंताएं पैदा हो सकती हैं। यह अमेरिका के उन प्रयासों का भी संकेत है कि चीन की बढ़ती ताकत के बीच अमेरिका एशियाई देशों से अपने गठजोड़ को और मजबूत करना चाहता है।
वैसे भारत को 55 साल पहले 1955 में भी स्थाई सदस्यता की पेशकश की गई थी। उस समय अमेरिका और सोवियत संघ ने भारत को यह पेशकश की थी, पर भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस पेशकश को ठुकरा दिया था। नेहरू ने कहा था कि भारत के बजाय यह सीट चीन को दे दी जाए।
ओबामा की यह प्रतिबद्धता भारत के नए अंतरराष्ट्रीय दर्जे की दिशा में सिर्फ एक कदम है।

Monday, November 1, 2010

अब किस पे करें भरोसा

इसी रविवार को मुंबई स्थित एक चेनल के ऑफिस में गया। एक मित्र का आग्रह था कि ब्यूरो चीफ कि जगह खाली है आ जाओ । अपन भी इलेक्ट्रोनिक मिडिया का कीड़ा शांत करने के इरादे से उधर चले गए। मगर उस दफ्तर में पत्रकारिता का जो वीभत्स रूप मुझे दिखाई दिया वह मेरे लिए एक भयावह अनुभव था । चैनल के एक अफसर को खबर से ज्यादा इस बात में रूचि थी कि कौन सा बिल्डर कहा क्या घपला कर रहा है । साहब ने बाकायदा एक फाइल बना राखी है जिसमे शहर भर में चलनेवाले तमाम निर्माण कार्यों विशेषकर भवन निर्माण कि अच्छी खासी जानकारी जुटा कर रखी हुयी थी। इशारा साफ़ था कि यहाँ खबर का मतलब तोडपानी है । पत्रकारिता से भाई लोगों को कोई लेना देना नहीं था न है। शायद यही कारण रहा होगा कि मेरे एक मित्र वहां एक महिना भी पूरा किये बगैर ही छोड़ दिया है। सवाल यह है कि पत्रकारिता का यह कौन सा तेवर है जिसमे पत्रकार को एक हफ्ताखोर बना कर बाज़ार में उतारा जा रहा है । मेरे पूर्व नियोक्ता भी पत्रकारों को दलाई के धंधे में उतर दिया है। हाँ जब भी आप उनसे मिलोगे तो पत्रकारिता के आदर्शवाद पर पूरा भाषण झड देंगे। लगेगा कि इनसे बड़ा महान पत्रकार कोई नहीं है। लेकिन कथनी और करनी में एकदम विरोधाभास है। यदि आप पत्रकार हैं और स्वाभिमान जैसे रोग से पीड़ित है तो कृपया अपने आदर्शवाद को घर ही छोड़ दें और हाथ में कटोरा ले भीख अर्थात विज्ञापन मांगने का अभ्यास करें वर्ना आज कि पत्रकारिता में आप अप्रासंगिक हो जायेंगे ठीक मेरी तरह। दलाली सीख लो, दुनियाभर के छल कपट को अपना स्वाभाव बना लो, दूसरे की जेब काटने का फन सीख लो । बहरहाल अपन निराश नहीं हैं .निश्चित ही यह स्थिति ज्यादा दिन तक चलने वाली नहीं है। लोग ऐसे पत्रकारों को यथोच्य ढंग से निपटेंगे । लेकिन इस बीमारी का हल अपने पत्रकार समाज को ही खोजना होगा। हमें अपने भीतर झांकना होगा की इस स्थिति के लिए कहीं हम खुद ही तो जिम्मेदार नहीं हैं? आज पत्रकारों में भी दिखावे की जो प्रवृत्ति बढ़ी है वही आज की पत्रकारिता को भ्रष्ट कर रही है। हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना चाहेंगे ? जिस दिन इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर ढूँढने का प्रयास होगा , पत्रकारिता सुधर जाएगी।